हिंसात्मक आंदोलन से सबक लेने की जरूरत

26 जनवरी को दिल्ली में जो कुछ हुआ, वह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण और खेदजनक है, परंतु इससे हमें कुछ सबक लेने होंगे. जरूरी सबक यह है कि असंतोष की चिंगारी को ज्यादा दिनों तक सुलगने नहीं देनी चाहिए. सरकार ने जो नए कृषि कानून बनाए हैं, उनके विरुद्ध किसानों के एक तबके की आवाज धीरे-धीरे मुखर होती जा रही थी और उनके बीच एक उकसाने वाला संदेश जा रहा था. चूंकि समस्या इतने दिनों तक खिंचती रही इसीलिए थोड़ा सा मौका मिलने पर अराजक तत्वों ने दिल्ली में माहौल खराब कर दिया.
गणतंत्र दिवस पर किसान आंदोलन के नाम पर राष्ट्रीय राजधानी में जो हिंसा और राष्ट्रविरोधी गतिविधियां हुईं, उनसे सारा देश उद्वेलित है. हिंसात्मक घटनाएं तो कश्मीर, नक्सल प्रभावित क्षेत्रों और पूर्वोत्तर में भी होती रहती हैं, परंतु दिल्ली में इस तरह का उपद्रव और वह भी 26 जनवरी को, केंद्र सरकार के लिए एक बहुत बड़ा झटका है. ट्रैक्टर रैली से निपटने के लिए दिल्ली पुलिस ने अपनी तरफ से पूरी तैयारी की थी, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि गृह मंत्रालय से उसे ऐसे निर्देश मिले थे कि स्थिति बिगड़ने पर भी किसी हालत में गोली नहीं चलाना है. अगर ऐसा आदेश था तो वह सही था, परंतु यह भी सही है कि इस आदेश के अनुपालन में दिल्ली पुलिस को भारी कीमत चुकानी पड़ी. इस घटना में 394 पुलिसकर्मी घायल हुए. इनमें से कुछ को गंभीर चोटें आई हैं और कुछ अस्पतालों के आइसीयू में भर्ती हैं. इन सभी पुलिसर्किमयों के लिए सरकार द्वारा पर्याप्त मुआवजे की घोषणा होनी चाहिए.
दूसरा सबक यह है कि पुलिस को ऐसी स्थिति से निपटने के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध होने चाहिए. किसानों की भीड़ पर निगरानी रखने और कंट्रोल रूम को समय-समय पर सूचना देने के लिए पुलिस के पास हेलीकॉप्टर होने चाहिए थे, जिससे वह ऊपर से स्थिति का जायजा बेहतर तरीके से ले सकती. ड्रोन कैमरे से भी पर्यवेक्षण किया जा सकता था. नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में हेरोन ड्रोन बहुत प्रभावी सिद्ध हुए हैं. ऐसे मौके पर दिल्ली पुलिस के पास ये ड्रोन होते तो उन्हें समय से चेतावनी मिल जाती और लाल किले पर जो उपद्रव हुआ, उसे रोका जा सकता था. आंसू गैस का प्रयोग निष्प्रभावी रहा.
तीसरा सबक यह है कि आज की तारीख में कई प्रकार के राष्ट्रविरोधी तत्व सक्रिय हैं. ये तत्व मौके की तलाश में रहते हैं. सरकार विरोधी कोई भी मुद्दा हो, वे उसमें घुस जाते हैं और आग में घी डालने का काम करते हैं. प्रथमदृष्टया जो रिपोर्ट आई हैं, उनके अनुसार खालिस्तान समर्थक सिख फॉर जस्टिस नामक संस्था ने आंदोलन में अच्छी-खासी घुसपैठ कर ली थी. इस संगठन ने करीब दो हफ्ते पहले घोषणा की थी कि जो भी गणतंत्र दिवस के दिन लालकिले पर खालिस्तानी झंडा फहराएगा, उसे ढाई लाख डॉलर दिए जाएंगे. इसी संस्था के सरगना ने पंजाब के किसानों का आह्वान किया था कि वे 25-26 जनवरी को दिल्ली की बिजली काट दें, ताकि राजधानी अंधेरे में डूबी रहे. ऐसे तत्वों के विरुद्ध निरोधात्मक कार्रवाई होनी चाहिए.
भारत सरकार को ऐसे ड्रोन बनाने चाहिए, जो एक बड़े क्षेत्र में आंसू गैस छोड़ सकें. ड्रोन का उपयोग पिज्जा भेजने में हो रहा है तो आंसू गैस छोड़ने में क्यों नहीं हो सकता? चौथा सबक यह है कि आमने-सामने की स्थिति में कभी-कभी फौज की भाषा में रणनीतिक रूप से पीछे हटना (टैक्टिकल रिट्रीट) भी वांछनीय होता है. किसानों के वकील दुष्यंत दवे के अनुसार ये कानून संविधान के संघीय ढांचे पर आघात करते हैं और यदि लागू किए गए तो कारोबारी दिग्गज कृषि बाजार पर काबिज हो जाएंगे और छोटे किसानों का अस्तित्व मिट जाएगा.
दूसरी तरफ अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की मुख्य अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ के अनुसार इन कानूनों से किसानों के बाजार का दायरा बढ़ेगा और उनकी आमदनी में बढ़ोतरी होगी. केंद्र सरकार कानूनों को निरस्त किए बिना यह कह सकती थी कि कानून उन्हीं प्रदेशों में लागू होंगे, जिनकी विधानसभाएं उनके अनुमोदन का प्रस्ताव पारित कर देंगी. ऐसा करने से आंदोलनकारी दिल्ली के बजाय प्रदेशों की राजधानी में जाने को बाध्य हो जाते. अगर ये कानून वास्तव में किसानों के लिए लाभदायक हैं, तो कालांतर में इन कानूनों को न अपनाने वाले स्वत: इनकी मांग करते. जो कानून सात दशकों से लागू नहीं हुआ, वह अगर वह कुछ प्रदेशों में दो-चार साल बाद लागू होता तो आसमान नहीं फट जाता.
कृषि कानूनों से जो विवाद खड़ा हुआ है, उसका स्थायी समाधान निकालना होगा. सुप्रीम कोर्ट ने एक कमेटी गठित की है. अगर कमेटी के सदस्यों से कुछ लोगों को आपत्ति हो और यदि उस आपत्ति में बल हो तो उसका पुनर्गठन किया जा सकता है. केंद्र सरकार चाहे तो इस विषय पर निर्णय लेने का अधिकार राज्य सरकारों पर छोड़ सकती है. कानूनों की संवैधानिकता पर सुप्रीम कोर्ट की भी राय ली जा सकती है. कई विकल्प हैं. सरकार को उन्हीं में से ऐसा कोई रास्ता निकालना होगा, जो प्रदर्शनकारी किसानों के एक बड़े वर्ग को भी स्वीकार्य हो.
लोकतंत्र में विपरीत राय रखने का सबको अधिकार है. शांतिपूर्ण ढंग से आंदोलन करने की स्वतंत्रता है, परंतु 26 जनवरी को दिल्ली में लक्ष्मण रेखा पार हो गई. आंदोलनकारियों ने पुलिस की सारी शर्तों को तोड़ा. पुलिस पर हमला किया. लालकिले पर राष्ट्रविरोधी प्रदर्शन किया. ये सब क्षम्य नहीं. इसके लिए जो भी जिम्मेदार हों, उनके विरुद्ध सख्त कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए-वे चाहे किसी भी पार्टी या संगठन के हों. इनसे सरकारी संपत्ति के नुकसान की वसूली भी की जानी चाहिए. कई नेताओं ने भड़काऊ बयान दिए हैं. उदाहरण के लिए एक महाशय ने कहा, ‘किसी के बाप की जागीर नहीं है गणतंत्र दिवस. खबरदार जो ट्रैक्टर को रोका, उसका इलाज कर देंगे.’ जिन्होंने भी विवादित बयान या भीड़ को उकसाने का काम किया है, सभी का इलाज होना जरुरी है.
