राज्यपाल और सरकारों के बीच खींचातानी के जंग की कहानी है पुरानी

अख़बार एवं न्यूज़ चैनलों के माध्यम से ख़बर पढ़ने और देखने को मिल जाती है कि देश की राजधानी दिल्ली में सरकार और राज्यपाल के बीच अधिकार को लेकर खींचातानी की स्थिति बराबर बनी रहती है. सरकार अपने अधिकारों का दावा पेश करती है, तो वहीं राज्यपाल अपने अधिकारों का. ये लड़ाई एक केंद्र शासित प्रदेश की है. जहां पर राज्यपाल को संविधान के मुताबिक विशेषाधिकार प्राप्त है. लेकिन बात राज्यों की करें, तो सरकार और राज्यपाल के बीच जंग चलती रहती है. केंद्र में यदि सरकार राज्य के मुताबिक है, तो द्वन्द्व की स्थिति नहीं पनपती. अगर राज्य के मुताबिक केंद्र सरकार नहीं है, तो खींचातानी का दौर चलता रहता है.
अभी हाल ही में महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी चर्चा में हैं. वजह, महाराष्ट्र सरकार ने कोश्यारी साहब को सरकारी विमान उपलब्ध कराने से मना कर दिया. लाज़मी है, रिश्तों में कड़वाहट हो तो ऐसी खींचातानी ही पनपती है. बात सियासी इतिहास की करें, तो बहुत से उदाहरण मौजूद हैं, जहां मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच खींचातानी की कहानियाँ इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं.
बात त्रिपुरा की करें, तो त्रिपुरा में मार्क्सवादी सरकार ने राजभवन की बिजली और पानी की सप्लाई तक रोक दी थी. नतीजतन, तत्काल राज्यपाल रोमेश भंडारी को भागकर दिल्ली आना पड़ा, फिर उसके बाद उनका तबादला गोवा की राजधानी पणजी कर दिया गया. तमिलनाडु के राज्यपाल रहे डॉक्टर मर्री चन्ना रेड्डी पड़ोसी राज्य पुडुचेरी का भी काम देख रहे थे. अन्नाद्रमुक की मुख्यमंत्री जयललिता से उनके भी रिश्ते ख़राब रहे थे. एक बार की बात है, वे सड़क मार्ग से चेन्नई से पुडुचेरी जा रहे थे, तभी अन्नाद्रमुक पार्टी के कार्यकर्ताओं ने उन पर पत्थरबाजी शुरू कर दी. पुलिस मूक दर्शक बन के देखती रही. कार के शीशे ध्वस्त हो गए. अगर उनके साथ मौजूद परिसहायक उनकी ढाल न बनते, तो शायद राज्यपाल को अस्पताल की शरण लेनी पड़ती.
इस समय पश्चिम बंगाल भी बहुत चर्चा में है. वजह, हाल ही में बंगाल में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. 60 के दशक की बात है, बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल थे धर्मवीर. उस समय अजय मुखर्जी मुख्यमंत्री और ज्योति बसु उपमुख्यमंत्री थे. मार्क्सवादी लोगों से तंग आकर तत्कालीन राज्यपाल ने 1969 में सरकार को बर्खास्त कर दिया. उसके बाद कोलकाता की सड़कों पर लोगों ने निकलना शुरू कर दिया. हालात बिगड़ती चली गयी. बिगड़ते हालात को देखकर राज्यपाल को बंगाल छोड़ना ही उचित लगा. बाद में धर्मवीर कर्नाटक, पंजाब, हरियाणा, जैसे राज्यों के राज्यपाल रहे.
बंगाल का हालिया घटनाक्रम याद करें, तो बंगाल में नियुक्त किए गए राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी भी तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं के पत्थरबाजी का शिकार हो चुके हैं. उनके लिए कोलकाता राजभवन त्रासदी से भरा रहा है. अब जगदीप धनखड़ को रोज ममता बनर्जी के विशेषण युक्त संबोधन झेलने पड़ रहे हैं.
हाल ही में छत्तीसगढ़ के आदिवासी राज्यपाल अनुसुइया के द्वारा नामित रायपुर विश्वविद्यालय के कुलपति को कांग्रेस मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अधर में लटका दिया था. रात में दोनों सत्ता केंद्रों में युद्ध विराम हुआ, तब जाकर नामित कुलपति ने अपनी कुर्सी पर विजय पाई. हालांकि अनुसुइया काँग्रेसी अर्जुन सिंह के मध्य प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री रह चुकी हैं. बाद के दिनों में उन्होंने बीजेपी ज्वाइन किया था.
एक और वाकया है, यूपी से जुड़ा हुआ, साल था 1957 का. यूपी में उस वक्त डॉक्टर संपूर्णानंद मुख्यमंत्री थे. वी वी गिरि को यूपी का राज्यपाल नियुक्त किया गया. जब वी वी गिरि अपना कार्यभार ग्रहण करने के लिए चेन्नई से चले, तो अख़बारों में उनके हवाले से यह खबर बड़ी प्रमुखता से छपी कि वे एक सजग राज्यपाल की भूमिका में होंगे, न कि रबर स्टैंप बने रहेंगे. रबर स्टैंप का तात्पर्य है कि राज्यपाल की भूमिका एक राज्य में मुख्यमंत्री के क़ानूनों पर सहमति दर्ज करने तक की ही है. खैर, वी वी गिरी साहब यूपी पहुंचे, मीडिया में अपना एक विश्लेषण दिया था कि वह राज्यपाल के सजग भूमिका में नजर आएँगे. लेकिन नतीजा क्या हुआ? संपूर्णानंद ने वी वी गिरि के आने के बाद से पूरी तरीके से ऐसे हालात पैदा कर दिए कि वी वी गिरि को अपना काम करना मुश्किल हो गया और वी वी गिरी आधी अवधि में अपना तबादला कराने को मजबूर हो गये.
वैसे राज्यपालों को लेकर बहुत सी ऐसी कहानियां है, जब उन्होंने केंद्र सरकार के दवाब में आकर ऐसे कार्य किए, जिसकी वजह से उन्हें शर्मिंदगी झेलनी पड़ी. साल था 1958, केरल में ईएमएस नंबूदरीपाद की सरकार थी. सरकार ने शिक्षा सुधार कानून बनाया, सरकार के खिलाफ केरल की नायर सेवा समिति और ईसाई संस्थाओं ने एकजुट होकर आंदोलन शुरू कर दिया. सरकार के विधानसभा में अपार बहुमत होने के बावजूद सरकार को बर्खास्त कर दिया गया.
उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहे डॉक्टर बी गोपाल रेड्डी ने चौधरी चरण सिंह की सरकार को 60 के दशक में बर्खास्त कर दिया था. एक और वाकया है, उत्तर प्रदेश से जुड़ा हुआ. उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार थी. मुख्यमंत्री थे, कल्याण सिंह. तत्कालीन राज्यपाल रमेश भंडारी ने कल्याण सिंह को हटा दिया और आधी रात को उन्हीं की सरकार में मंत्री रहे जगदंबिका पाल सिंह को शपथ दिला दी. अटल बिहारी वाजपेयी का खलल पड़ा और विरोध हुआ. अटल जी अनशन पर बैठ गये. सर्वोच्च न्यायालय ने बहुमत सिद्ध करने का आदेश दिया और एक ही सदन में दो-दो मुख्यमंत्री एक साथ रहे.
ऐसा ही एक दु:खद दृश्य आंध्र प्रदेश में देखने को मिलता है. साल था 1984, उस समय हिमाचल से हैदराबाद आये ठाकुर रामलाल ने तेलुगू देशम् पार्टी के मुख्यमंत्री एंटी रामाराव को विधानसभा में तीन चौथाई बहुमत के बावजूद हटा दिया.
उस समय देश मे दौर था, इंदिरा गांधी का. वह उस समय प्रधानमंत्री थी. जयपुर चंडीगढ़ में राज्यपालों ने जो किया, वो बेहद शर्मिंदगी और अक्षम में भरा रहा और राज्यपाल पद की शोभा को कलंकित किया. राज्यपाल संपूर्णानंद ने स्वतंत्र पार्टी की महारानी गायत्री देवी के बहुमत दर्शाने के बावजूद काँग्रेसी मोहनलाल सुखाड़िया को गुपचुप शपथ दिला दी. जनता दल के चौधरी देवी लाल को वादा देकर गनपत डी तपासे ने कांग्रेसी भजन लाल को हरियाणा का मुख्यमंत्री बना दिया. मतलब साफ़ था, राज्य में राज्यपाल का कोई वज़ूद ही नहीं था.
यूपी की एक और घटना है, जो दयनीय घटनाओं में से एक है. राज्यपालों की बर्ख़ास्तगी को लेकर साल था 1977. जनता पार्टी की सरकार ने इंदिरा गांधी द्वारा नामित राज्यपालों को हटा दिया. सत्ता में वापसी करते ही साल 1980 के फरवरी महीने में इंदिरा गांधी ने भी जनता पार्टी के ही पथ पर चलते हुए ऐसा ही किया.
एक लोकतांत्रिक देश में संवैधानिक पद के रूप में राज्यपाल का उल्लेख है. लेकिन अफ़सोस, उस पद को वो अधिकार नहीं मिलते, जो मिलने चाहिये. दूसरी बात कभी-कभी राज्यपाल अपने अधिकार का गलत उपयोग भी कर देता है, जो न्यायसंगत नहीं लगता है. ऐसे में राज्य में सत्ताधारी सरकार और राज्य में राज्यपाल दोनों के बीच सामंजस्य होना जरुरी है. अन्यथा लोकतंत्र की आधारशिला के रूप में वर्णित संविधान की गरिमा खंडित होगी, जो लोकतंत्र के लिहाज से उचित नहीं है.
