चंद्रशेखर आज़ाद आज़ाद ही रहेगा: पुण्यतिथि विशेष

भारत की आज़ादी में कुछ नाम ऐसे हैं, जिन्हें आज हम याद कर रहे हैं और हमारे बाद वाली पीढ़ी भी उन्हें जरूर याद करेगी. वजह यह है कि माँ भारती के उन वीर सपूतों ने अपने प्राणों की आहुति देकर देश को अंग्रेजी हुकूमत से स्वतंत्र कराने में अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया. आज वो हैं तो नहीं लेकिन अगर आज हम आबाद हैं, स्वतंत्र हैं तो इसमें उनका बहुत बड़ा योगदान है और उन्हें याद कर श्रद्धा सुमन अर्पित कर श्रद्धांजलि देना हमारा परम कर्तव्य है. आज तारीख है 27 फरवरी, आज ही के दिन 1931 में भारतीय क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद ने अंग्रेजों हुकूमत से लोहा लेने के दौरान स्वयं को अंग्रेजों के चंगुल में फंसता देख गोली मार ली थी.
चंद्रशेखर की वीरगाथा को आज भी प्रयागराज का अल्फ्रेड पार्क बयान करता है, जिसको आज आज़ाद पार्क के नाम से भी जाना जाता है. चंद्रशेखर कोई व्यक्ति भर नहीं थे, बल्कि एक विचारधारा थे, एक क्रांतिकारी सोच थे. माँ भारती के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाली तत्कालीन नस्लों के लिए एक प्रेरणा स्रोत थे.
आज चंद्रशेखर जी की पुण्यतिथि है, आइये जानते हैं, आज़ाद जी से जुड़ी कुछ रोचक जानकारियां.
क्यों पड़ा आज़ाद नाम
देश अंग्रेजी हुकूमत से लड़ रहा था, देश में गांधीजी के द्वारा असहयोग आंदोलन चलाया जा रहा था. चंद्रशेखर की उम्र उस समय मात्र 15 साल थी. असहयोग आंदोलन में चंद्रशेखर ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. आंदोलन के दौरान चंद्रशेखर को गिरफ्तार कर लिया गया. जज के सामने पेश किया गया. जज को दिये गया जवाब ने ही आज़ाद को मशहूर कर दिया. जज ने उनसे पूछा आपका नाम, चंद्रशेखर का जवाब था ‘आज़ाद’, पिता का नाम ‘स्वतंत्रता’, घर का पता ‘जेल.’ जज आज़ाद के जवाब से आगबबूला हो गया और आज़ाद को 15 कोड़े मारने की सजा सुनायी. जब-जब गोरे पुलिसकर्मी उनको कोड़े मार रहे थे, तो हर एक कोड़े के साथ आज़ाद वंदे मातरम् का जय घोष और महात्मा गांधी की जय करते रहे. इस घटना के बाद से ही चंद्रशेखर के आगे आज़ाद जुड़ गया और लोगों उनकों आज़ाद के नाम से ही जानने लगे.
गांधीजी का आज़ाद के ऊपर प्रभाव
असहयोग आंदोलन के दौरान गिरफ्तारी के बाद अदालत में दिये गये जवाब ने आज़ाद को देशवासियों के बीच मशहूर करा दिया. आज़ाद के ऊपर महात्मा गांधी के विचारों का बड़ा प्रभाव था. आज़ाद गांधीजी की स्वाधीनता की धारणा से बहुत प्रेरित रहते थे. 15 साल की उम्र में ही देश के लिए आजादी और गांधीजी के प्रति श्रद्धाभाव ने उनको सबका प्रिय बना दिया.
गांधीजी से मोहभंग
असहयोग आंदोलन के दरमियान जब उत्तर प्रदेश के गोरखपुर स्थित चौरी-चौरा कांड के बाद गांधीजी ने आंदोलन वापस ले लिया, तब आज़ाद का गांधीजी से पूरी तरीके से मोहभंग हो गया. आज़ाद में आज़ादी के लिए बहुत अधिक आग भरी थी. आज़ाद आज़ादी के लिये हिंसा का रास्ता अपनाने के लिए भी तैयार थे. आज़ाद अकेले ही नहीं थे. उनकी मुलाकात राम प्रसाद बिस्मिल से हुई और आज़ाद क्रांतिकारी बनने की दिशा में अग्रसर हो गए.
अपनाया क्रांति का रास्ता
राम प्रसाद बिस्मिल से मुलाकात आज़ाद के जीवन में टर्निंग प्वाइंट साबित हुई. इसके बाद वह हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन के सक्रिय सदस्य बनकर क्रांतिकारी बन गये. बात करें पार्टी की, पार्टी का नेतृत्व तो बिस्मिल के हाथों में था. लेकिन आज़ाद की क्रांतिकारी विचारों की वजह से और देश के प्रति अगाध प्रेम की वजह से बहुत जल्द आज़ाद सभी साथियों के चहेते बन गए. जिसमें भगत सिंह भी शामिल थे.
काकोरी कांड और आज़ाद
1925 के 9 अगस्त को बिस्मिल और अन्य क्रांतिकारियों के साथ मिलकर आज़ाद ने काकोरी में चलती ट्रेन को रोक कर ब्रिटिश खजाने को लूट लिया. क्रांतिकारियों के खजाने को लूटने का उद्देश्य क्रांतिकारी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए हथियार खरीदना था. इस लूट को काकोरी कांड के नाम से भी जानते हैं. काकोरी कांड ने तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत को हिला कर रख दिया. इसके बाद ब्रिटिश हुकूमत आज़ाद और उनके साथियों के पीछे पड़ गयी. लेकिन आज़ाद जब तक जिंदा रहे, ब्रिटिश पुलिस उनको पकड़ने में नाकाम ही रही.
लाहौर में लाला लाजपत राय की मौत का बदला लिया
काकोरी कांड के बाद वक्त बीतता चला गया और आज़ाद की लोकप्रियता और अधिक बढ़ती चली गई. साल आता है 1928 का, जिसमें लाला लाजपत राय को लाठीचार्ज के दौरान ब्रिटिश सैनिकों ने लाठी से वार कर मौत के घाट उतार दिया, जिसके बाद आज़ाद ने लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए सांडर्स को मौत के घाट उतारने की योजना बनाई. 17 दिसंबर 1928 को आज़ाद, भगत सिंह तथा राजगुरु के साथ मिलकर लाहौर स्थित पुलिस अधीक्षक दफ्तर के बाहर एकत्रित हुए और फिर जैसे ही सांडर्स अपने अंगरक्षकों के साथ निकला, तो भगत सिंह और राजगुरु ने उसके ऊपर ताबड़तोड़ फायरिंग कर सबको मौत के घाट सुला दिया.
आज़ाद पूरी उम्र अपने नाम के मुताबिक आज़ाद ख्याल के ही रहे. हमेशा से ही अपने समर्पित विचारों के पथ पर चलते रहे. उन्होंने संकल्प लिया था कि वह कभी अंग्रेजों के हाथ नहीं आएंगे और उन्हें फांसी लगाने का मौका अंग्रेजों को कभी नहीं मिलेगा. अपने इस वचन को चंद्रशेखरजी ने पूरी तरीके से निभाया.
