अमित जगा रहा शिक्षा का अलख

कहते हैं,मजबूत इरादों के पीछे जुनून का हुजूम होता है. अगर इरादे मजबूत हो, कुछ करने की ललक हो, तो उम्र की सीमा जज़्बे को बांध पाने में नाक़ामयाब होती है. जिस उम्र में बच्चे खेलने कूदने से आगे नहीं बढ़ पाते हैं, उसी उम्र में कुछ कर गुज़रने का जज़्बा लिए, उत्तर प्रदेश के पठारी इलाके सोनभद्र से ताल्लुक़ात रखने वाले अमित ने मात्र 8 साल की उम्र में शिक्षा की अलख ज्योति जगा के नौनिहालों के जीवन को संवारने का बीड़ा अकेले उठा लिया है.
चारों तरफ ऊचे पठारों से ढका एक गांव है. इसी गांव के 14 साल के 8वीं मे पढ़ने वाले छात्र ने लॉकडाउन में बिगड़ रहे बच्चों को पढ़ाने का मन बनाया. छात्र अमित ने गांव के छोटे छोटे बच्चों को अपने घर पर इकठ्ठा किया और शुरू कर दी पढाई. आदिवासी क्षेत्र में महत्वपूर्ण कामों की कमी है. यकीन है कि बच्चे बहुत रचनात्मक होते हैं और अपने लिए कुछ न कुछ काम तो बना ही लेते हैं. मऊकलां गांव में 8वीं में पढ़ने वाले आदिवासी छात्र अमित धांगर ने कुछ अलग करने का संकल्प लिया.
घर की छत को बनाया शिक्षा का मंदिर
जंगल के बीच में बसे गांव के बच्चों को हमेशा जंगली जानवरों का खतरा रहता है. इसलिए 8वीं के छात्र अमित, गांव में पिता को मिले आवास की छत पर बच्चों को पढाता है, ताकि पढाई के दौरान कोई जंगली जानवर ना आ जाये. लकड़ी की सीढ़ी से चढ़ते छोटे छोटे बच्चे जंगली जानवरों से बचते हुए पढाई के लिए छोटे से मकान के छत पर जाकर पढाई करते हैं. बिना बाउन्ड्री की छत के ऊपर बैठ कर छात्र सुबह 9 बजे से 11 बजे तक और शाम के 3 बजे से 5 बजे तक पढाई करते हैं.
अमित की मेहनत रंग जमा रही
आदिवासी गांव मऊकलां में समुदाय के पास उनका परंपरागत काम महुआ का शराब बनाना या मजदूरी करना है. इन इलाकों के बच्चे भी किसी वयस्क की तरह ही काम करते हैं. आदिवासी इन कामों को नियमित रूप से करते हैं, और उन कामों को उनके बच्चे भी सीखते हैं. इस समय भी ज़्यादातर आदिवासी बाहुल्य गांवों में बच्चे अनेक कामों में व्यस्त हैं. लॉकडाउन में बच्चों के स्कूल बन्द होने से उनके पास घरेलू काम के आलावा कोई काम नहीं था. बच्चे गांव में गाली गलौज, खेलकूद में लग गए. जिससे गांव के आदिवासी बच्चों का जीवन बिगड़ने लगा. ऐसे में बच्चों को ना बिगड़ने देना, व उनको शिक्षित करने का बीड़ा उठाया 8वीं में पढ़ने वाले छात्र अमित ने. उसने अपनी शिक्षा के साथ छोटे छोटे बच्चों के बीच शिक्षा की अलख जगाये रखी. आज छोटे छोटे आदिवासी बच्चे अपनी आदिवासी भाषा के अलावा कड़वा बोली, हिन्दी के अलावा अंग्रेजी बोल रहे हैं.
कोरोना महामारी के चलते बच्चों की शिक्षा को लेकर बहुत चिंतित होंगे. भारत में लगभग 25 करोड़ बच्चे पहली से 12वीं तक 15.5 लाख स्कूलों में पढ़ते हैं. इनमें 70 फीसदी स्कूल सरकारी हैं. विश्व भर में कोविड-19 से बचाव के लिए लोगों के किसी भी जगह इकठ्ठा होने पर पाबंदी लगा दी गयी.
लॉकडाउन से पढ़ा रहे हैं अमित
अमित ने बताया कि कोरोना लॉकडाउन से हम पढ़ा रहे हैं. अब इंटरनेट का जमाना है, लेकिन हम भी नहीं पढ़ पा रहे थे. हम और भी कमजोर होते जा रहे थे. बच्चे भी नहीं पढ़ पा रहे थे, कमजोर हो जाते और हमारा गांव बिगड़ता जा रहा था. इस गांव के बच्चे बहुत ज्यादा गाली गलौज करते हैं. इधर गांव में गाली गलौज बहुत ज्यादा होता है. हम पढ़ाएंगे तो हम भी अच्छे रहेंगे. ज्ञान देने से बढ़ता है और हमारा भी ज्ञान बढ़ेगा. गांव में बच्चों के बीच गाली गलौज कम हो गया है. हमें इज्जत भी मिलने लगी है. हम पढ़ाने लगे तो हमें खुशी मिलने लगी.
