ब्रिटिश हुकूमत की एक अनोखी रियासत का लौटा कुमार

जब हम छोटे थे ,तो हमको राजा रानी और परियों की खूब कहानियाँ सुना कर दादी नानी सुलाने की कोशिश करती रहती थी जिसको लोरिया भी कहाँ जाता था शायद इस सदी में हमारा बचपना अंतिम था जहाँ बचपन में कहानियाँ सुनने को मिला था उसी कहानियों का नतीजा है हम अब भी कहानियाँ सुन्ना देखना पढ़ना बेहद पसंद करते है।
राजा रानी की कहानियाँ तो बस फ़िल्मी दुनियाँ का हिस्सा होता लेकिन राजा रानी की कहानी का एक सच हो एक हकीकत हो तो पढ़ने में रोमांच पैदा हो जाता
आज की राजा रानी की कहानी बस कहानी नहीं है बल्कि बकायदा यह एक सच्ची घटना है इसके सरकारी दस्तावेज उपलब्ध है ।
कहानी आजादी के पहले की है , जब देश में ब्रिटिश हुकूमत अपना पैर फैलाये हुई थी। उस वक्त बांग्लादेश और पाकिस्तान समूचे भारत का हिस्सा हुआ करता था ।
ढाका में एक देशी रियासत थी कहानी उसी रियासत से जुडी हुयी है, अमूमन रियासतों पर मालिकाना हक मुसलमानों के पास होता था लेकिन 1704 में एक ब्रिटिश अफसर ने बड़ा बद्लाव किया और रियासत हिन्दुओ को सौप दी करीब 2000 गांवो की जमींदारी में फिर बदल हुआ उसी में एक रियासत थी भावाल आज की कहानी उसी रियासत से जुडी हुयी है
इस रियासत के जो पहले राजा थे उनका नाम बाजरा योगिनी श्रीकृष्ण था और आखरी राजा राजेंद्र रॉय चौधरी थे जिनके 3 बेटे और 3 बेटियाँ थी जिनकी 1901 में मृत्य हो गयी
भारत जो की पितृसत्तात्मक सत्ता का नेतृत्व करता है, उसके मुताबिक सत्ता बड़े पुत्र को स्थानांतरित की जाने की प्रॉपर्टी रही है उसी परम्परा को जारी रखते हुये सत्ता राजेंद्र नारायण चौधरी के बड़े बेटे को सौपी गयी लेकिन होनी को कुछ और मंजूर था बड़े और छोटे बेटे की आकस्मिक मृत्यु हो गयी
सत्ता बीच के बेटे रमींद्र नारायण राय चौधरी को सौपी गयी सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था अचानक 1909 में राजा बीमार हो गये बाते पुरे रियासत में फ़ैल गयी राजा अपनी पत्नी और साले के साथ दार्जलिंग जाते है किसी वैद्य से इलाज कराने
जिसके बाद सुचना आती है राजा की मौत हो गयी वक्त बीतता है साल आता है १९२० एक सन्यासी अचानक से बांग्ला से हिंदी बोलने लगता है और पहुँच जाता है भावाल रियासत में राजा की मौत के बाद रियासत कोर्ट ऑफ़ वाट के अधीन कर दिया जाता है,यानि रियासत पर मालिकना हक़ सरकार हो जाता है
सन्यासी को देख गांव और आस पास के लोग कहने लगे अरे कुमार तो लौट आये बात राजघराने तक पहुंची महारानी और उनके घर वाले उस सन्यासी को मिलने के लिये बुलाये महारानी बात शिरे से नकार दी की ये हमारे पति है। इसी बीच उस सन्यासी को अपने अतीत की और बाते याद आने लगी
लोगों के बार बार कहने पर सन्यासी 1933 में अदालत का दरवाजा खटखटाया ढाका की निचली अदालत अपना फैसला सुनाते हुये रियासत का मालिकाना हक़ लौटे राजकुमार को सौप दी यानी रमींद्र नारायण राय चौधरी को
लौटे राजकुमार की तरफ से केस की पैरवी वकील बस चटर्जी कर रहे थे दूसरे पक्छ ने दलीले पेश करते हुये निचली अदालत के फैसले पर आपत्ति जताई मामला कलकत्ता हाईकोर्ट में पंहुचा और वहाँ से भी लौटे कुमार की जीत हुई उस समय सुप्रीमकोर्ट लंदन में मौजूद था
लोगों के बार बार कहने पर सन्यासी 1933 में अदालत का दरवाजा कट्खटाया ढाका की निचली अदालत अपना फैसला सुनाते हुये रियासत का मालिकाना हक़ लौटे राजकुमार को सौप दी यानी रमींद्र नारायण राय चौधरी को
लौटे राजकुमार की तरफ से केस की पैरवी वकील बस चटर्जी थे दूसरे पक्छ ने दलीले पेश करते हुये निचली अदालत के फैसले पर आपत्ति जताई मामला कलकत्ता हाईकोर्ट में पंहुचा और वहाँ से भी लौटे कुमार की जीत हुई दूसरे पक्छ ने हाईकोर्ट के फैसले पर आपत्ति जताते हुये मामले को सुप्रीम कोर्ट में लेकर जाता है समय सुप्रीमकोर्ट लंदन में मौजूद था, कारण देश अंग्रेजी हुकूमत के अधीन था लन्दन की कोर्ट ने भी फैसला लौटे कुमार के पक्छ में सुनाया
इस तरह करीब साल मुकदमे बाजी और खींचतान में बीत गये अंत में 30 जुलाई 1946 को लन्दन कोर्ट ने अपना फैसला कुमार के पक्छ में सुनाया
भावाल रियासत फिर से रमींद्र नारायण राय चौधरी को सौप दी गयी ।
