धार्मिक कट्टरता तुर्की और सऊदी आमने सामने

धर्म हमेशा से विवादों का विषय रहा है खासकर इस्लाम. इस्लाम की बादशाहत को लेकर सऊदी अरब और तुर्की में हमेशा से एक विवाद रहा है आखिर सही मायने में इस्लाम की सत्ता के हुक़ूमत का असली वारिश कौन है सऊदी अरब या तुर्की दोनों इस पर अपने दावे अपने दलीलें पेश करते रहते है. दोनों के बीच द्वन्द युद्ध आज का नहीं है बल्कि इसकी जड़े और भी पुरानी है ,इतिहास की गहराई में जाने से पहले हालिया मामला क्या है ,इसको समझना जरूरी है.
तुर्की इन दिनों इस्लामिक कट्टरवादी नीति को लेकर फिर से चर्चा में है ,जहां साल 2020 महामारी की चपेट में रहा संपूर्ण देश रोजी रोटी और अपनी जनता की हिफाज़त में जूझते रहे तो वही तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन अपनी धार्मिक मसीहावादी सिद्धांत को वैसेस्वीक पटल पर स्थापित करने में मसगुल रहे. 2020 में राष्ट्रपति अर्दोआन मुस्लिम दुनिया के मसीहा बनकर उभरने की कोशिश में काफ़ी हद तक कामयाब भी नज़र आए. ऐतिहासिक इमारत हागिया सोफ़िया को दोबारा मस्जिद में बदला जाना तुर्की में साल की सबसे अहम घटना मानी जा रही है.
इसके बाद से मुस्लिम दुनिया में अर्दोआन हीरो की तरह देखे जाने लगे. हागिया सोफ़िया तुर्की का गौरव है, जो 24 जुलाई को जुमे की नमाज़ के साथ एक संग्रहालय से मस्जिद में बदल दिया गया. हागिया सोफ़िया की मौजूदा इमारत का निर्माण ईसाई सम्राट जस्टिनियन ने 537 ईस्वी में किया था. इसे तुर्की सम्राट और ख़लीफ़ा सुल्तान मेहमेत ने 1453 में गिरजाघर से मस्जिद में बदल दिया था. अर्दोआन ने 21वीं शताब्दी में वही काम दोहरा कर ख़ुद को उस्मानिया दौर के ख़लीफ़ा का आधुनिक रूप धारण करने की कोशिश की.
2015 में तुर्की के सरकारी चैनल पर एक टीवी सीरियल प्रसारित हुआ जिसका नाम था ,डिरिलिस एर्तुग्रुल जो अपने मुल्क तुर्की में खूब पॉपुलर हुआ इतना की लगभग 5 सीजन आ गये मजे कि बात २०१९ में इसकी पॉपुलरटी इतनी ज्यादा बढ़ी की पड़ोसी देश पाकिस्तान के प्रधानमंत्री खुद इस सीरियल को देखने की अपील कर डालें और २०२० आते आते इसकी भनक अपने देश में भी लगी तो देश के मुस्लिम कट्टरवादी इसकी मांग करने लगे बाद में नेटफ्लिक्स ने इसको अपने प्लेटफॉर्म से प्रसारित किया.
विवाद की जड़ को समझने के लिये इस्लाम को समझना जरूरी है
इतिहास
पैगंबर मोहम्मद ने यदि 632 साल में अपनी मौत से पहले अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया होता, तो आज स्थिति कुछ और होती. लेकिन ऐसा हुआ नहीं और युवा इस्लामी समुदाय पैगंबर की मौत के तीस साल बाद ही बिखर गया. इनमें बहुमत उन लोगों का था जिन्होंने बाद में अपने आपको सुन्नी कहा. दूसरा दल पैगंबर के दामाद अली इब्न अबी तालिब के समर्थकों का था. शियात अली यानि अली का दल बाद में शिया संप्रदाय बना. शिया अभी भी अल्पसंख्यक हैं और मुसलमानों की 1.6 अरब की आबादी में उनका हिस्सा करीब 15 फीसदी है.
झगड़े की शुरुआत पैगंबर के उत्तराधिकारी को लेकर हुई, “शुरू में राजनीतिक विवाद था, जिसकी जड़ में उत्तराधिकारी चुनने का सवाल और दलीय हित थे. उसके बाद राजनीतिक विवाद धार्मिक विवाद में बदल गया.” पैगंबर मोहम्मद की मौत के बाद इस्लाम दो धड़ो में बट गया 1> सिया 2 >सुन्नी उसके बाद बहुत से धड़ो में विभाजित हो गया
तुर्की के वर्चस्व की कहानी की शुरुआत होती है, उस्मानिया सल्तनत से जिसको उस्मानी साम्राज्य या ऑटोमन साम्राज्य के नाम से भी जाना जाता है उस्मानिया 1299 में पश्चिमोत्तर अंतालिया से स्थापित एक तुर्क इस्लामी सुन्नी साम्राज्य था महमूद द्वितीय द्वारा 1493 में कांस्टेंटिनोपोल जितने के बाद यह एक विशाल इस्लामी साम्राज्य में बदल गया ,इस साम्राज्य ने 1453 में आज के इस्ताम्बुल को जीतकर बैजेटाइन साम्राज्य का समूल अंत कर दिया, इस्ताम्बुल बाद में राजधानी बनी.
इस सल्तनत की स्थापना उस्मान प्रथम ने की थे ,तुर्की में प्रसारित टीवी धारावाहिक डिरिलिस एर्तुग्रुल की जो कहानी है वो जुडी है इस सल्तनत की वीर गाथा से रही बात नाम की तो उसका सम्बन्ध है इस सल्तनत के संस्थापक उस्मान प्रथम के पिता से यानि एर्तुग्रुल उस्मान प्रथम के पिता थे.
तुर्की और सऊदी अरब के विवाद की जड़ क्या है
उस्मानिया सल्तनत यानी ऑटोमन साम्राज्य के सैनिक किंग अब्दुल्लाह बिन सऊद और वहाबी इमाम को जंजीर में बांधकर इस्तांबुल लाए थे. जब अब्दुल्लाह का सिर काटा जा रहा था तो हागिया सोफ़िया के बाहर भीड़ जश्न मना रही थी और सिर काटे जाने के बाद पटाखे फोड़े गए थे.
हागिया सोफ़िया के बाहर अब्दुल्लाह का सिर कटा शव तीन दिनों तक लोगों के देखने के लिए रखा गया. वहाबी इमाम का सिर कलम इस्तांबुल के बाज़ार में किया गया था. इस दौरान ऑटोमन साम्राज्य के सैनिकों ने पहले सऊदी स्टेट की राजधानी दिरिया और रियाद के बाहरी इलाक़ों पर हमला कर ध्वस्त कर दिया था. ऑटोमन साम्राज्य ही 1924 में सिमटकर आधुनिक तुर्की बना और आज का तुर्की ऑटोमन को अपना गौरवशाली इतिहास मानता है.
आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष तुर्की की स्थापना करने वाले मुस्तफ़ा कमाल अतातुर्क ने 1934 में इसे मस्जिद से संग्रहालय में तब्दील कर दिया था. विश्लेषक कहते हैं कि अब इसे दोबारा मस्जिद में बदल कर अर्दोआन ने अतातुर्क की विरासत को कमज़ोर कर दिया है. लेकिन मुस्लिम दुनिया में उनका क़द काफ़ी ऊंचा हुआ है.
सवाल ये हैं क्या तुर्की जिस कट्टरता की राह पर चल रहा वो उचित है धर्मनिर्पेक्ष की आधारशिला पर लोकतंत्र की आधारशिला रखने वाला तुर्की आज अपनी धार्मिक कट्टरता में इतना मशगूल हो चुका है कि किसी भी धर्म की धार्मिक भावना को आहत करने से नहीं कतरा रहा है ऐसे में कही न कही दुनियाँ को अपने आक्रमणकारी निति का आईना दिखा रहा जो मानवता के लिहाज से उचित नहीं है
ऐसे में सयुंक्त राष्ट्र संघ को तुर्की के आक्रमणकारी निति पर लगाम लगाने की जरूरत है ,नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब विश्व तृतीय विश्व युद्ध का आगाज होगा जो मानवता और इस धरती के लिहाज से बहुत विनाशकारी होगा
