एक ऐसा केस जिसने भारतीय लोकतंत्र की रक्षा की

एक ऐसा केस जिसने भारतीय लोकतंत्र की रक्षा की

लोकतंत्र के नींव की आधारशिला समानता से है. समानता का तात्पर्य सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक हर क्षेत्र में समान न्याय से है. लोकतंत्र में समानता को सहेजने का कार्य देश की न्यायपालिका करती है. लोकतांत्रिक देश का प्राण कहा जाने वाला संविधान इसको अधिकार देता है. जब देश आजाद हुआ था, तो बहुत सी विसंगतियां संविधान में मौजूद थी. इसे समय-समय पर संवैधानिक संशोधन के द्वारा दूर किया गया और ये प्रक्रिया आज भी मौजूद है. गौर करने वाली बात है कि संविधान में उल्लेखित भाग 3 के मौलिक अधिकार को छोड़कर, देश के इतिहास में कुछ केस विवादों में रहे. वजह, न्यायपालिका का तत्कालीन सरकार के साथ सामंजस्य न बन पाने की दशा में विवाद की स्थति पनपी और वो केस लोगों के बीच चर्चा का विषय बना रहा. 

आज बात करते हैं, ऐसे ही एक विवादित केस की. जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ सन 1973 के केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य की.

केशवानंद भारती

इस केस में जहाँ एक तरफ पूरी जनता की लॉबी और साथ ही भारतीय न्यायपालिका थी, तो वहीं दूसरी तरफ तत्कालीन तानाशाही काँग्रेस, जिसकी डोर संभाली थी, इंदिरा गांधी ने.

अंततः भारतीय लोकतंत्र की जीत हुई.

अब आईये, हम पूरी भूमिका को समझते हैं. आखिर शुरूआत कहाँ से हुई.

1967 के चुनाव के ठीक पहले एक मामला आया, जिसे गोकल नाथ केस के नाम से जानते हैं, इस केस में न्यायपालिका ने अपना एक निर्णय सुनाया कि भारतीय संसद को मौलिक अधिकार में छेड़छाड़ करने का अधिकार नही है.

1967 में चुनाव हुए. तात्कालिक तानाशाह कांग्रेस को, जिसकी कमान थी इंदिरा जी के हाथों में, चुनाव में बुरी तरह पराजय का सामना करना पड़ा. आधे से अधिक राज्यों से कांग्रेस की सरकार गिर गई. 

indra gandhi

इंदिरा जी को अहसास हो गया की जनता हमसे नाराज है, साथ ही साथ उनका अपना खेमा भी उनसे नाराज है, ऐसे में कुटिल नीति की चतुर राजनेता इंदिरा जी को अहसास हो गया कि मेरी शक्ति कमजोर पड़ रही है.

इसे बस एक ही उपाय से बढ़ाया जा सकता था, वह था संविधान में संशोधन कर के. 1971 के चुनाव आये और भारतीय राजनीति में पहली बार संविधान संशोधन और भूमि सुधार मुख्य मुद्दा बना.

चुनाव हुए, जनता ने अपना विश्वास दिखाते हुए कांग्रेस को 2 तिहाई बहुमत से संसद में भेज दिया. 

अब एक मौका आया, जिसका इंदिरा जी को काफी समय से इंतजार था. अपनी कमजोर पड़ती शक्ति को पुनःस्थापित करने का मौका. आनन-फानन में संविधान में 3 संशोधन कर डाले. 

संशोधन 24: गोकल नाथ केस, 1967 न्यायपालिका द्वारा दिया गया निर्णय ही पलट के रख दिया. अब संसद अपनी मर्जी की हिसाब से मौलिक अधिकार में परिवर्तन कर सकती थी.

संशोधन 26: संपत्ति के मूल अधिकारों में कटौती

संशोधन 29: देसी रियासतों को संसद द्वारा मिलने वाले सालाना धन को बंद कर दिया गया

अब बात मुख्य मुद्दे की

भूमिसुधार अधिनियम: इस नियम को केरल राज्य में लागू किया गया. केशवानंद जी, जो कि एक मठ के मालिक थे, उनकी जमीन में बने मठ को केरल सरकार ने अपने अधिकार में ले लिया. केशव जी केरल हाई कोर्ट गये. केस चलता

रहा. अंततः, केस सुप्रीमकोर्ट में पहुँचा. उसी चपेट में 24, 26, 29वां संविधान संशोधन भी आ गया।

उसी समय कांग्रेस ने नौवीं अनुसूची बना दी, जिसके अनुसार भूमि सुधार को रख दिया.

कोई विषय अगर अनुसूची में डाल दी जाती है, तो सुप्रीमकोर्ट या न्यायपालिका उसमें अपना निर्णय नहीं सुना सकती.

केरल राज्य का मामला जटिल था. 13 जजों की एक कोर कमेटी बनाई गई. 68 दिन तक बहस हुआ. अंततः, वो दिन 24 अप्रैल 1973 का आ गया, जिस दिन मामले का फैसला आने वाला था. एक तरफ जनता, तो दूसरी तरफ तानाशाही

सरकार. निर्णय के दिन जज दो गुटों में बंट गए. एक दल के मतानुसार, संसद सर्वोपरि है, वो संविधान में संशोधन क्या, पूरा संविधान बदल सकता है.

वही दूसरी मत के अनुसार, क्या दलों को मिलने वाला समर्थन पूरे देश की जनता का होता हैं? जब समर्थन नहीं, तो संशोधन नहीं.

जज कमेटी के एक जज, जिनका नाम खरे था, वो बोले, मैं दोनों की बातों से सहमत हूं. संशोधन संसद कर तो सकती है, लेकिन मौलिक ढांचे में नहीं.

और अंततः कमेटी के सदस्यों के बीच पर्ची के माध्यम से चुनाव कराया गया. मेजोरटी के अनुसार संशोधन संसद कर तो सकती है, लेकिन मौलिक ढांचे में नहीं. 

इस तरह भारतीय लोकतंत्र की रक्षा हो सकी.

वैसे इंदिरा जी ने मौका मिलने पर अपने तानाशाही रवैये को बरकरार रखा था. 1975 में, जयप्रकाश नारायण के चुनाव को इलाहाबाद हाइकोर्ट ने अवैध घोषित कर दिया था, तत्काल इंदिरा जी ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी.

केशव नंद केस में हारने के बाद भी हार नहीं मानी. देश भर में 40 न्यायाधीश का तबादला कर दिया गया. 

पुनः एक कमेटी गठित हुई. केशवानंद केस के दुबारा जांच के लिए, उस समय भी एक न्यायविद जज,  जिनका नाम पिल्लई था, उन्होंने पुनः लोकतंत्र की रक्षा की.

उन्होंने महत्वपूर्ण तथ्य दिया कि किसी केस को दुबारा तभी खोला जा सकता है, जब तक कि उस पर  पुनर्विचार याचिका दाखिल न हो.

 

इस तरह हम देखते हैं कि समय समय पर न्यायविदों ने देश के लोकतंत की रक्षा कर के एक तानाशाही शासन से देश की जनता के लिए कवच के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई.

Akhilesh Namdeo