ग्लेशियर: इनके महत्त्व और रहस्य को जानना जरुरी है

ग्लेशियर: इनके महत्त्व और रहस्य को जानना जरुरी है

विगत रविवार की सुबह तक उत्तराखंड में सब कुछ सामान्य था. प्रकृतिक सुन्दरता के बीच सूर्य उदित हो चुका था. सभी अपने के कामों में बिजी थे. सुबह करीब 10:30 बजे के आसपास प्रदेश चमोली जिले में स्थित नंदा देवी पर्वत श्रंखला में से एक ग्लेशियर का भाग यानी हिमखंड टूटकर, तेजी से फिसलता हुआ  ऋषिगंगा नामक नदी में जा गिरता है. इसके गिरने से नदी के जल स्तर में अचानक वृद्धि होनी ही थी. ग्लेशियर के पिघलने के कारण, ऋषिगंगा के जल से देखते ही देखते ही रैणी गांव के पास चल रहा 13मेगावाट का बिजली संयंत्र भीषण तबाही के मंजर में परिवर्तित हो गया और इसका असर 5 किलोमीटर के दायरे में बहने वाली धौलीगंगा पर भी पड़ा. वहां एनटीपीसी का निर्माणाधीन प्रोजेक्ट पूरी तरह से तबाह हो जाता है. अनेक पुल ध्वस्त हो गए एवं प्रदेश के विभिन्न गांवो से संपर्क टूट गया और केदारनाथ त्रासदी के बाद  फिर से विनाश बनाम विनाश की एक बड़ी बहस खड़ी हो गई.

ग्लेशियर गिरने की धमक जिस रैणी गांव के करीब हुई थी, उस ग्राम के निवासी वर्ष 2019 में अवैध खनन की याचिका के साथ हाई कोर्ट गए थे. पर्यावरणीय द्रष्टिकोण से इस अति संवेदनशील क्षेत्र में बिजली परियोजना की आड़ में अवैध खनन किया जा रहा था. अवैध खनन कभी भी तबाही ला सकता था. आप तो जानते ही हैं, भारत में ऐसे मामले न्यायालयों की तारीखो में ही उलझे रहते हैं और घटनाओं का सबब बन जाते हैं. उसी तरह यह मामला भी तारीखो में उलझे रह जाने के कारण इस हादसे का सबब बन गया.

इस तबाही ने सभी को यह स्पष्ट करा दिया कि हमें अभी अपने जल-प्राण लाने वाले ग्लेशियरों के बारे में सतत अध्ययन और नियमित आंकलन की बहुत ही बड़ी जरूरत है. 3 साल पहले नीति आयोग द्वारा तैयार की गई जल संरक्षण नीति पर में भी स्पष्ट है कि हिमालय से फूटने वाली जल की धारा में जल की मात्रा कम होने के कारण ग्लोबल वार्मिंग के दुष्परिणाम के रूप में ऐसे मामले सामने आयेंगे. जिनमे कि हिमालय के ग्लेशियर पिघल जाएंगे. इसके चलते नदियों में पानी बढ़ेगा और उसका दुष्परिणाम यह होगा कि हिमालय की घाटियों में कई गांव जलमग्न हो जाएंगे और पर्यावरण के बढ़ते तापमान को रोकने वाली ओज़ोन परत के नष्ट होने से बाढ़ और सूखा जैसी समस्यायें भी बढ़ेगी.

उत्तराखंड राज्य में हिमालय पर्वत के छोटे-बड़े करीब 1400 ग्लेशियर स्थित हैं. प्रदेश  के क्षेत्रफल का 20% भाग इनसे घिरा हुआ है. इन ग्लेशियरों से निकलने वाले जल का एक बड़ा भाग कृषि, पीने के पानी, उद्योग, बिजली, पर्यटन आदि के लिए देश का एकमात्र स्नोत है. हिमालय पर्वत के उत्तराखंड प्रदेश में छोटे-बड़े करीब 1482 पर्वत हैं.क्षेत्रफल की बात करें तो यह पर्वत राज्य के 20 फ़ीसदी क्षेत्रफल में हैं. इससे स्पष्ट होता है कि ग्लेशियरों के साथ किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ देश के पर्यावरण एवं सामाज के लिए आर्थिक और सामरिक संकट का कारण बन सकती है.

इसी कारण से वर्ष 2010 में उत्तराखंड के तत्कालीन सीएम रमेश पोखरियाल (निशंक) द्वारा प्रदेश में रो एंड ग्लेशियर प्राधिकरण के गठन के लिए पहल की थी. पूर्व सीएम ने अपने कार्यकाल में इसरो के निर्देशन में शुरू हुए स्नो एंड एवलांच स्टडीज स्टैब्लिशमेंट, चंडीगढ़ एवं देहरादून के वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालय स्टडीज के सहयोग से प्राधिकरण के गठन की प्रक्रिया शुरू की थी. दुर्भाग्य से उनके मुख्यमंत्री पद हटते ही यह महत्वाकांक्षी परियोजना को ठंडे बस्ते में चली गई.

हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों पर बर्फ के विशाल पिंड, जो कम-से-कम 3 फुट मोटे और 2 किमी तक लंबे हो, उन्हीं को हम सामान्य भाषा में ग्लेशियर कहते हैं.

जिस तरह नदी में पानी ढलान की ओर बहता है वैसे ही हिमनद भी नीचे की ओर खिसकते जाते हैं. हिमालय क्षेत्र में साल के करीब 300 दिन कम से कम 8 घंटे तेज धूप रहती है. जाहिर है, थोड़ी बहुत गर्मी में हिमनद नहीं पिघलते हैं. कोई एक दशक पहले जलवायु परिवर्तन पर गठित अंतर्राष्ट्रीय पैनल आईपीसीसी ने दावा किया था कि बढ़ते तापमान के चलते संभव है कि 2035 तक हिमालय के ग्लेशियरों का नामो-निशान खत्म हो जाए. इसकी एक संस्था ने दावा किया था कि हिमालय के ग्लेशियरों पर ग्लोबल वार्मिंग का कोई खास असर नहीं पड़ने वाला है.

तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जय राम रमेश इससे संतुष्ट नहीं हुए. उन्होंने वीके रैना के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक दल को काम सौंप दिया. इस दल ने 25 बड़े ग्लेशियरों से सम्बंधित 150 साल पुराने आंकड़ों विश्लेषण करने पर यह निष्कर्ष पाया कि  हिमस्खलन के नीचे खिसकने का सिलसिला काफी पुराना है और बीते कुछ सालों के दौरान इसमें कोई विशेष परिवर्तन नहीं देखने को मिला. इस दल ने इस आशंका को भी सिरे से नकार दिया कि जल्द ही ग्लेशियर विलुप्त हो जाएंगे और भारत में कयामत आ जाएगी. आइ.पी.सी.सी ने  परिणामों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.

पश्चिमी देशों के सिद्धांत को भी हिमालय पर लागू करते रहे. इसके बाद भी हम विचार करें, तो पाएंगे कि हिमालय पर्वत श्रृंखला के उन इलाकों में ग्लेशियर ज्यादा प्रभावित हुए हैं, जहां मानव दखल ज्यादा हुआ है. याद रहे कि अभी तक एवरेस्ट की चोटी पर तीन हजार पर्वतारोही झंडे गाड़ चुके हैं. यहाँ पहुंचने वालों की संख्या भी हजारों में है. यह पर्वतारोही अपने पीछे कचरा गंदगी छोड़ कर आते हैं.हमें यह बात भी स्वीकारनी होगी कि ग्लेशियरों के नजदीक निर्माणाधीन जल विद्युत परियोजनायें भी ग्लेशियरों को प्रभावित कर रही हैं.

ग्लेशियर हमारे लिए उतने ही आवश्यक हैं, जितने कि स्वच्छ हवा या पानी, फिर भी हम अभी तक ग्लेशियर के रहस्यों से अनजान हैं. वैज्ञानिकों का तो यह भी मानना है कि गंगा और यमुना जैसी प्राचीन नदियों के उद्गम स्थल में पायी जाने वाली (ग्लेशियरों की गहराई में) स्फटिक जैसी संरचनाएं भी स्वच्छ पानी का स्नोत हैं.

बहुत से देश इस संरचना के रहस्यों को जानने में उत्सुकता केवल इसलिए रखते हैं, ताकि भारत की किसी कमजोर कड़ी को तैयार किया जा सके. इस फिराक में ग्लेशियर पिघलने का शोर होता रहता है.

आशंकाओं को रोकने का एक ही तरीका है, अध्ययन के लिए अधिकार संपन्न प्राधिकरण का गठन हो. जिसका संचालन केंद्र के हाथ में हो. राज्य और केंद्र के बीच जो बराबर गतिरोध की स्थिति रहती है, उनका प्रभाव इस संपन्न प्राधिकरण के ऊपर न पड़े. तब जाकर आने वाले भविष्य के लिए ये सिद्धांत उसके विस्तार, उसकी स्वाभाविक प्रकृति के बारे में जान पाएंगे और हम अपने आगामी पीढ़ी को एक स्वस्थ एवं खुशहाल जीवन दे पाने में सक्षम रहेंगे. नहीं तो प्रकृति समय-समय पर अपना भयावह रूप दिखाती रहेगी और अगर अभी से हम नहीं संभले, तो आने वाली हमारी पीढ़ी अपना जीवन दुश्वारियों में जीने के लिए मजबूर होगी.

 

 

Akhilesh Namdeo