कुपोषण एक गंभीर समस्या

कुपोषण एक गंभीर समस्या

हर इंसान की जरूरत होती है रोटी, कपड़ा और मकान. इन तीनों में भी सबसे जरुरी रोटी होती है. एक कहावत है, ये पापी पेट कुछ भी करा सकता है. सही भी है, पेट न हो तो इन्सान जिंदगी से इतनी जद्दोजहद न करे. पेट की भूख शांत करना धरातल पर उपस्थित सभी जीवों के लिये अनिवार्य होता है. चूंकि मनुष्य धरातल पर उपस्थित सबसे विवेकशील और विचारवान प्राणी है, तो इसकी लिए इसकी भूख को शांत करने की जबाबदेही तय होती है. दुनिया के बहुत बड़े हिस्से में भूख या कुपोषण की समस्या को नए सिरे से देखना पड़ रहा है. भले ही कोरोना महामारी इस समस्या को पैदा करने की जिम्मेदार न हो, लेकिन इतने दशकों से चले आ रहे इस संकट को और गंभीर जरूर कर दिया है. 

कुपोषण पर महामारी का असर

अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का एक अनुमान है कि कोरोना संकट के एक साल में विश्व में यह संकट लगभग दोगुना बड़ा हो गया है. इसलिए अब नया सोच-विचार यह है कि भूख और कुपोषण का यह भयावह संकट अस्थायी है या इसका असर लंबे वक्त तक रहने वाला है? दुनिया के तमाम हिस्सों में कुपोषण को लेकर चिंता तो कोरोना के पहले भी जताई जाती रही थी. और इससे निपटने के लिए जो कोशिशें हो रही थीं, उन्हें नाकाफी माना जा रहा था. लेकिन महामारी ने जो आग में घी डाला, उसने साफ-साफ उजागर कर दिया कि विश्व के कुछ क्षेत्रों में आर्थिक प्रतिरोधी क्षमता (इकोनोमिक इम्युनिटी) इतनी भी नहीं थी कि वे देश महामारी को झेल पाते. संयुक्त राष्ट्र की एक दो नहीं, बल्कि चार एजेंसियों ने, खासतौर पर एशिया प्रशांत क्षेत्र में, भूख और कुपोषण की स्थिति का जो आकलन किया है, वह भयावह है.

संयुक्त राष्ट्र की अपील 

संयुक्त राष्ट्र ने बहुत पहले से अपने सदस्य देशों से अपील की हुई है कि 2030 तक अपने-अपने देशों में भुखमरी को खत्म करने का इंतजाम करें. इसके लिए संयुक्त राष्ट्र ने सभी देशों से साफ-साफ कह रखा था कि बच्चों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए पोषण पर पर्याप्त खर्च करें. इसी वैश्विक अभियान के लिए यह विश्व संस्था समय-समय पर सभी देशों को याद दिलाती रहती है और अपनी तरफ से भी कार्यक्रम चलाती है. लेकिन अब जब भुखमरी के खात्मे का लक्ष्य सिर्फ दस साल दूर रह गया है, तो संयुक्त राष्ट्र की चिंता स्वाभाविक है. एक तो पहले से ही कई देश तय लक्ष्य के मुताबिक काम नहीं कर पा रहे थे, ऊपर से महामारी ने इस लक्ष्य को जबर्दस्त धक्का लगा दिया है. संयुक्त राष्ट्र को नए सिरे से सोचना पड़ रहा है. वर्ष 2019 की स्थिति के मुताबिक एशिया प्रशांत क्षेत्र में एक सौ नब्बे करोड़ व्यक्ति अपने लिए न्यूनतम पोषक भोजन खरीदने लायक भी पैसा नहीं कमा पा रहे हैं. इधर पिछले साल यानी 2020 में कोरोना महामारी ने कमजोर अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों को माली तौर पर और ज्यादा तहस-नहस कर दिया. ऐसे में आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि दुनिया के तमाम देशों में भूख और कुपोषण की मौजूदा हालत आज दिन तक कैसी बन चुकी होगी?

भारत की स्थिति और नीतिगत योजना

भारत के लिए भुखमरी, कुपोषण जैसी समस्याओं का जिक्र पहले भी होता रहा है. वैश्विक भुखमरी सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) में भारत पिछले साल तक एक सौ सात देशों में चौरानवे वें नंबर पर था. हालांकि ऐसे तुलनात्मक सूचकांक से वास्तविक स्थिति का जरा भी पता नहीं चलता, लेकिन एक अंदाजा जरूर लगता है कि पोषण के मामले में दुनिया में हमारी स्थिति कैसी है. वैश्विक भुखमरी सूचकांक पर गौर करें, तो हम दुनिया के एक सौ सात देशों के बीच सबसे बदहाल पंद्रह देशों में शामिल हैं. दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के नाते यह आंकड़ा दुखद ही कहा जाएगा. हालांकि इस तरफ ध्यान देने के लिए समय-समय पर देश में कार्यक्रम भी बनते रहे हैं, लेकिन इस वक्त संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट इस कारण से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि देश का सालाना बजट पेश होने को है. ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि आगामी बजट में बच्चों और महिलाओं में कुपोषण पर गौर होता हुआ जरूर दिखेगा.

कुपोषण कम आमदनी का नतीजा

वैसे दुनिया में कुपोषण की यह समस्या सीधे सीधे नागरिकों की कम आमदनी का ही नतीजा मानी जाती है. संयुक्त राष्ट्र की इसी रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि एक व्यक्ति को एक दिन का न्यूनतम पोषक भोजन लेने के लिए लगभग एक अमेरिकी डॉलर यानी लगभग 72 रुपए रोजाना चाहिए. यह न्यूनतम पोषक आहार सिर्फ पर्याप्त कैलोरी वाला भोजन है. अगर सभी प्रकार के आवश्यक पोषक तत्वों के लिहाज से देखा जाए तो उस भोजन का खर्चा सवा दो डालर यानी पौने दो सौ रुपए रोज बैठता है. इस तरह बिल्कुल साफ है कि अगर अपने देश में भुखमरी और कुपोषण की समस्या को समाप्त करने के लिए कोई कदम उठाना हो या योजना बनानी हो, तो हमें अपने निम्न आय वाली आबादी के बारे में गहराई से सोचना पड़ेगा. खासतौर पर कोरोनाकाल में जिस तरह से मजदूर और अर्धकुशल कामगारों के रोजगार खत्म हुए हैं, उसके बाद तो यह चुनौती बहुत ही बड़ी हो गई है. यह एक अलग बात है कि अगर गरीबों की आमदनी बढ़ाने का इंतजाम न हो पा रहा हो, तो उन तक सीधे ही पोषक तत्त्वों से भरपूर भोजन पहुंचाने के दूसरे इंतजाम करने पड़ेंगे.

सरकारों की कोशिशें जारी

बहरहाल, इस बात में कोई शक नहीं है कि दुनिया की तमाम सरकारें इस समय महामारी से तबाह अपनी तमाम व्यवस्थाओं को फिर से पटरी पर लाने की कोशिश में जुटी हैं. कई देश तो महामारी की चरम अवस्था के दौर में ही अपनी अर्थव्यवस्था को लेकर चिंतित हो उठे थे. हम भी उन देशों में शामिल माने जा सकते हैं. लेकिन सबसे ज्यादा गौर करने की बात यह है कि अर्थव्यवस्था को संभालने के उपक्रम में आपातकालीन जरूरतों पर कितना ध्यान दिया गया. किसी देश में उद्योग-धंधों या दूसरी उत्पाद्र गतिविधियों पर ध्यान देने के साथ ही नागरिकों की न्यूनतम आवश्यकताओं पर ध्यान देना भी उतना ही जरूरी माना जाता है. इसीलिए एशिया प्रशांत में अगर सबसे बुनियादी जरूरतों में भी पहली आवश्यकता यानी भोजन के संकट पर संयुक्त राष्ट्र गौर करवा रहा है तो इसे गंभीरता से लिया ही जाना चाहिए. अगर सिर्फ अपने देश की ही बात करें, तो सरकार के दावों के आधार पर कहा जा सकता है कि अपनी अर्थव्यवस्था ज्यादा चिंतनीय स्थिति में नहीं है. यानी हमारे लिए अपने देश में भूख या कुपोषण के खात्मे के लिए अलग से कार्यक्रम चलाना कोई मुश्किल काम होना नहीं चाहिए. बस, ध्यान देने की कोई बात हो सकती है, तो यही हो सकती है कि हम अपनी प्राथमिकताएं तय कर लें.

संयुक्त राष्ट्र की प्रमुख एजंसी विश्व खाद्य कार्यक्रम ने अनुमान लगाया था कि 2019 के मुकाबले 2020 में तिरासी देशों के लगभग सत्ताईस करोड़ अतिरिक्त व्यक्तियों तक खाद्य सहायता पहुंचाने की जरूरत पड़ेगी. लेकिन अब महामारी की स्थिति पूरे एक साल तक खिंच चुकी है. इतना ही नहीं, वैश्विक स्तर पर कोरोना संक्रमण की रफ्तार अभी बेकाबू है. यानी हालात को उस पूर्व अनुमान से भी ज्यादा गंभीर माना जाना चाहिए. स्थिति की गंभीरता बताने के लिए 2019 की यूनिसेफ की एक रिपोर्ट को भी याद किया जा सकता है. इसमें बताया गया था कि भारत में हर साल कमोबेश आठ लाख अस्सी हजार बच्चों की मौत हो जाती है. इनमें चौहत्तर फीसद बच्चे सिर्फ कुपोषण के कारण ही मर जाते हैं. इस बात को मानने में किसी को भी कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि कोरोना ने इस स्थिति और बदतर कर डाला है.

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि कुपोषण और भुखमरी से जूझ रहे देशों की सरकारों को अपना खाद्य तंत्र ऐसा बनाना पड़ेगा, जिससे पोषक तत्त्व युक्त फल-सब्जी और प्रोटीन से भरपूर खाद्य उत्पाद उगाने के लिए किसान प्रोत्साहित हों. इसके लिए सरकारों की तरफ से इन क्षेत्रों में निवेश बढ़ाने के सुझाव को जोर देकर कहा गया है. इसीलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बार के बजट में जीवन की मूल आवश्यकताओं में सबसे पहली जरूरत यानी भोजन को सब तक पहुंचाने पर सबसे ज्यादा जोर दिया जाएगा.

 

Akhilesh Namdeo