मातृभाषा हो शिक्षा का माध्यम

मातृभाषा हो शिक्षा का माध्यम

जब एक शिशु पैदा होता है, तो उसकी प्रथम पाठशाला, उसका पारिवारिक माहौल और उसकी प्रथम शिक्षिका उसकी माता और भाषा मातृभाषा होती है. धीरे-धीरे जब वह बड़ा होता है, तो स्कूल में दाखिला लेता है और फिर स्कूल के बाद कॉलेज और फिर उसके बाद यूनिवर्सिटी की पढ़ाई ख़त्म करने के बाद जिंदगी की जद्दोजहद में लग जाता है.

नौकरी की तलाश शुरू होती है. इस दौरान आज के शैक्षिक-परिवेश में जो सबसे बड़ी समस्या उभर कर सामने आ रही है, वह है भाषा को लेकर. एक कृषि प्रधान देश होने के नाते भारत की आधी से अधिक जनसंख्या गांव में निवास करती है. बदलते वातावरण के हिसाब से अब कॉन्वेंट स्कूल गांव की ओर रुख किए हैं. लेकिन गांव में जो भाषाई गुणवत्ता होनी चाहिए, देखने को नहीं मिल रही है. एक बच्चा, औसतन 7 से 8 घंटे स्कूल में बिताता है. बाकी के बचे समय को वो अपने परिवार के साथ बिताता है. हां, यह बात सही है कि हो सकता है कॉन्वेंट स्कूल में शिक्षा के माध्यम का भाषाई आधार अंग्रेजी हो. लेकिन बाकी बचे समय में वह पारिवारिक, सामाजिक वातावरण में रहता है और बाकी का समय उसी सामाजिक परिवेश में गुजारता है. ऐसे में जो भाषा की समस्या होती है, उससे उस को जीवन भर जूझना पड़ता है.

सवाल यह खड़ा होता है कि क्या सरकार को शैक्षणिक परिवेश के लिए भाषा के माध्यम के रूप में मातृभाषा से जुड़ा कानून बनाना चाहिए. मातृभाषा की बात करें, तो मातृभाषा संवाद का माध्यम ही नहीं है, बल्कि किसी भी व्यक्ति या समुदाय की पहचान को भी दर्शाता है. हमारी भारत-भूमि भाषा और संस्कृति का संगम रही है.

आत्मसम्मान और सृजनात्मकता बढ़ाने, ज्ञान को बेहतर ढंग से समझकर आत्मसात करने के लिए बच्चों के शुरुआती वर्षों में सिखाने का आधार मातृभाषा होनी चाहिए. नेल्सन मंडेला का कहना था कि यदि आप किसी व्यक्ति से उसकी समझने वाली भाषा में बात करते हैं, तो वह उसके मस्तिष्क में घर करती है, लेकिन अगर उसकी पारिवारिक, सामाजिक भाषा में बात करते हैं, तो वह सीधे उसके हृदय को छूती है.’ मातृ भाषा वास्तविक रूप में व्यक्ति के परिवेश से निकटता से जुड़ी होती है. इस विषय में यूनेस्को के पूर्व महानिदेशक कोइचिरो मत्सुरा का वक्तव्य था, ‘जो भाषा हम अपनी मां से सीखते हैं, वह हमारे अंतर्निहित नैसर्गिक विचारों का घर होती है.’

अभिभावकों और शिक्षकों को इस पूर्वाग्रह से खुद को मुक्त करना होगा कि सिखाने का माध्यम अंग्रेजी होगा, तभी अच्छी शिक्षा मिल सकती है. विद्यालयों में प्राथमिक स्तर पर पढ़ने-पढ़ाने का काम मातृभाषा में ही होना चाहिए. बच्चों के प्रारंभिक जीवन में ही भाषा, ज्ञान और सांस्कृतिक जड़ों को मजबूत बनाया जाता है. अभिभावकों और शिक्षकों को बच्चों को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय भाषाएं सीखने में भी मदद करनी चाहिए, जिससे बच्चों की वैश्विक दृष्टि व्यापक हो. आज के समय में कई देशों में बच्चे कम से कम दो भाषाएं प्रयोग करना जानते हैं. भाषा पर पकड़ बच्चों में सीखने-समझने की क्षमता विकसित करने में सहायक होती है. मातृ भाषा के साथ-साथ दूसरी भाषाओं के ज्ञान से, उनके लिए अनुभवों का नया संसार खुल जाता है. भाषाई जनगणना, जिसके परिणाम 2018 में प्रकाशित हुए कि भारत में 19,500 भाषाएं और बोलियां हैं। 121 ऐसी भाषाएं हैं, जिन्हेंं पूरे देशभर में 10 हजार या उससे अधिक लोग बोलते हैं. 196 भारतीय भाषाएं ‘लुप्तप्राय’ हो चुकी हैं, जिनका संरक्षण और संवर्धन करना बेहद जरूरत है.

आज के दौर में भाषाओं की चिंताजनक स्थिति और भविष्य में उन्हें विलुप्त होने से बचाने तथा अपने सदस्य देशों की भाषाई और सांस्कृतिक विविधता को संरक्षित रखने के लिए नवंबर 1999 में यूनेस्को ने 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाना स्वीकार किया. यूनेस्को ने विश्व की आधी से अधिक भाषाओं के भविष्य को लेकर चिंता जाहिर करते हुए आशंका व्यक्त की है कि शताब्दी के अंत तक ये भाषाएं प्रायःविलुप्त हो जाएंगी. 2021 के लिए अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस का विषय है, ‘समावेशी शिक्षा और समाज के लिए बहुभाषिता को प्रोत्साहन.’ यह इस अवधारणा पर आधारित है कि एक समावेशी समाज बनाने के लिए बहुभाषिकता जरूरी है.

विवेचना
देश के नौनिहालों के शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होगी, तो आगे चलकर देश के भविष्य के रूप में युवाओं के काम करने की गुणवत्ता आज के मुकाबले बेहतर होगीं. उदाहरण के रूप में, आप पड़ोसी देश चीन को देख सकते हैं. ऐसे में गुणवता लाने के लिहाज से शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा का होना आवश्यक है. इसके लिए सरकार को सजग होने की जरूरत है.

Akhilesh Namdeo