म्यांमार के राजनैतिक युद्ध का भारत पर प्रभाव

बीते दिनों की बात है भारत से सटे एक देश में अचानक से सत्ता परिवर्तित हो जाती है. उस देश का नाम म्यांमार है. सत्ता परिवर्तन इस रूप में हुआ कि सेना सत्ता को अपने अधिकार में ले लेती है और जो भी वहां के शीर्ष नेता है सभी को हिरासत में ले लिया गया. जब से खबर सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों तक पहुंचती है तो बहुत से देश म्यांमार में परिवर्तित सत्ता का विरोध करना शुरू कर देते हैं.
विरोधी सुर का बिगुल बजाने वालो में प्रमुख रूप से अमेरिका का नाम सामने आता है. भारत का पड़ोसी देश चीन की यह रणनीति है, जहां सत्ता परिवर्तित होता है वहां किसी भी तरीके से किसी भी कमजोर राष्ट्र की मदद करके सत्ता पर अपना हुकूमत चलाना है.
ताजा उदाहरण के तौर पर आप पाकिस्तान और नेपाल की स्थिति देख सकते हैं, नेपाल जो 2008 के बाद एक लोकतांत्रिक देश बना वहां कम्यूनिस्ट वादी सरकार है जो आज पूरी तरीके से आज चीन के हथकंडे में फंस चुकी है.
चीन का आधिपत्य नेपाल के अर्थव्यवस्था से लगाएं उसके प्रशासन तंत्र पर है. चीन के प्रधानमंत्री केपी शर्मा अभी कुछ दिन पहले खबर आई थी सरकार अपने मंत्रिमंडल को खत्म करना खुद गिराना चाहते हैं और चुनाव की मांग कर रही हैं. जबकि नेपाल के संविधान में ऐसा नहीं है कि कोई भी सरकार संसद को भंग कर सकती है कहने का तात्पर्य है कि कोई भी सरकार अपना बहुमत खुद ख़त्म नहीं कर सकती है.
पाकिस्तान में चीन का आधिपत्य कुछ इस तरीके से कि आज पाकिस्तान रोटी रोटी को मोहताज है विश्व बैंक के कर्ज से लदा पाकिस्तान कर्ज को उतारने के लिए भी वैश्विक आर्थिक समितियों से कर्ज मांगने के लिए मजबूर है.
बात हम मुद्दे की करते हैं म्यांमार की करते हैं. भारत के लिए म्यांमार एक मजबूत आधार के रूप में है. लेकिन आप देखें होंगे सत्ता परिवर्तन को लेकर कोई अधिकारिक बयान ऐसा नहीं आया कि वह सैन्य शक्ति यानी सेना के साथ है या फिर वहां के लोकतंत्र के साथ वहां के नेता के साथ हैं.
ये बात कहीं ना कहीं खटकती है विवेचना जांच निष्कर्ष निकलकर सामने आया भारत म्यांमार में उपजे हालात सत्ता परिवर्तन के लिए जो मुक बधिर बना है उसके पीछे भारत की एक रणनीति है एक सूझबूझ है भारत की 1643 किलोमीटर लंबी सीमा इस देश से लगती है. दोनों देशों के बीच बंगाल की खाड़ी में 725 किलोमीटर लंबी तट रेखा है. दिल्ली म्यांमार को दक्षिणपूर्व एशिया में हुकूमत के द्वार के रूप में भी देखता है.
भारत एक्ट ईस्ट नीति’ के माध्यम से व्यापक आर्थिक एकीकरण में लगा है. म्यांमार और भारत के समक्ष कई साझा खतरे हैं. इनमें से एक खतरा बिगड़ैल चीन से भी है.
म्यांमार प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध है. आजादी के बाद यहां सेना को छोड़कर कोई अन्य संस्थान फला-फूला नहीं. यहां विभिन्न मतों और नस्ल वाले लोग रहते हैं. उत्तरी एवं पूर्वोत्तर के इलाकों में नस्लीय अलगाववाद की समस्या भी है. सेना ने एक दशक पहले देश में चरणबद्ध तरीके से लोकतांत्रिक प्रक्रिया को शुरू किया, फिर भी पश्चिमी देशों ने सेना के साथ रिश्ते सहज करने की दिशा में कदम नहीं बढ़ाए. सेना ने सिर्फ आंग सान सू की पर ही पूरा दांव लगाया. वर्ष 2017 में रोहिंग्या के मसले पर सू की के रवैये से भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी.
रोहिंग्या म्यांमार से बड़ी संख्या में बेदखल करने वाला वाकिया ने 1960 के दौर में म्यांमार से पलायन करने वाले पांच लाख से अधिक भारतीय मूल के लोगों की यादें ताजा करा दी थीं. उस वक्त म्यांमार पूरी तरह सैन्य तानाशाह नेविन की मुट्ठी में था, जिसने 1962 में सत्ता हासिल की. इसके बाद 26 वर्षों तक म्यांमार पूरी दुनिया से कटा रहा. म्यांमार के बर्मीकरण की प्रक्रिया के दरमियान भारतीयों को वहां से भगाया जा रहा था. नेविन ने भारतीयों को उत्पीड़न का शिकार बनाया. उसने निजी उद्योगों जगत का राष्ट्रीयकरण करना प्रारंभ कर दिया. इसका उद्देश्य भारतीयों को विपन्न बनाकर वहां से भागने पर विवश कर देना था. इसके कारण भारत सरकार को भारतीय मूल के लोगों को म्यांमार से लाने के लिए विमान और नौकाएं भेजनी पड़ीं.
1988 तक आते-आते नेविन की विदाई हो गई. म्यांमार में आर्थिक विपन्नत्ता का दौर आया और म्यांमार की गिनती दुनिया के दस सबसे गरीब मुल्कों में होने लगी. इतिहास के बुरे दस्ता को भूलकर भारत ने अपने हितों को देखते हुए म्यांमार के सैन्य नेतृत्व के साथ सहयोग बढ़ाया. चार महीने पहले ही भारत ने एक किलो क्लास पनडुब्बी की मरम्मत कराकर उसे म्यांमार को उपहारस्वरूप भेंट किया. यह म्यांमार की पहली पनडुब्बी है. भारत ने पिछले महीने ही 15 लाख कोरोना वैक्सीन मुफ्त में म्यांमार को उपहार स्वरूप भेट की हैं. गत वर्ष अक्टूबर में भारतीय सेना प्रमुख और विदेश सचिव ने म्यांमार का दौरा किया था. यह एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम था. गौर करने वाली बात चीन म्यांमार में विद्रोही समूहों को मदद पहुंचाता है. ये विद्रोही भारत के खिलाफ भी मोर्चा खोल सकते हैं. असल में वे भारत-म्यांमार सीमा के दोनों ओर सक्रिय हैं. इसे देखते हुए भारत को म्यांमार की सेना के सहयोग की दरकार है.
कुछ वक्त पहले हुए सैन्य तख्तापलट ने म्यांमार को लेकर अमेरिकी नीति की एक बड़ी खामी को उजागर कर दिया. अमेरिका सैन्य नेतृत्व के साथ कोई कड़ी नहीं जोड़ सका. वास्तव में अमेरिका नवंबर 2019 तक म्यांमार के शीर्ष सैन्य नेतृत्व पर शिकंजा कसे रहा. र्रोंहग्या मुसलमानों के दमन को नस्लीय सफाया करार देकर उसने दिसंबर 2017 से जनरलों पर वीजा प्रतिबंध लगाए रखने के साथ ही देश पर आर्थिक प्रतिबंध भी जारी रखे. अमेरिका इस बात को समझने में नाकाम रहा कि म्यांमार में लोकतंत्र को कायम रखने में सेना का सहयोग आवश्यक होगा, अन्यथा वहां सैन्य शासन वापस लौट आएगा. लोकतंत्र को सैन्य नेतृत्व के निरंतर समर्थन के एवज में उसे प्रोत्साहन देने के बजाय अमेरिका उलट व्यवहार ही करता रहा.
म्यांमार की सेना धूर्त चीन पर भरोसा नहीं करती. उनका मानना है कि म्यांमार की सेना और सरकार को निशाना बनाने के लिए ही चीन वहां अलगाववाद को मदद करता है.
ऐसे समय में भारत को और अमेरिका को समझाना चाहिए कि म्यांमार को लेकर प्रतिबंधों के बजाय प्रोत्साहन आधारित दूरदर्शी एवं व्यावहारिक रणनीति अपनाने की जरूरत है. अमेरिका को भारत और जापान जैसे अपने उन मित्र देशों के साथ अवश्य परामर्श करना चाहिए, जिनका म्यांमार में भारी निवेश है. और उसके सैन्य नेतृत्व से बढ़िया रिश्ते बनाए हैं. भारत और जापान की नीतियों की धुरी रणनीतिक रूप से इस अहम देश में चीनी प्रभाव की काट करने पर टिकी हुई है.
