नाम में क्या रखा है

सब झूठ है. सारी बातें गलत हैं. लोग कहते हैं कि नाम में क्या रखा है. अरे भैया, नाम में ही तो सब कुछ है. नाम ही तो हमारी पहचान है. नाम में क्या रखा है? नाम में तो इतना कुछ रखा है कि इसके लिये सिर फुटौव्वल हो जाये. टीवी चैनलों पर आजकल प्राइम टाइम पे बहस का मुद्दा है नाम.
अभी देखिये, गुजरात में स्टेडियम का नाम क्या बदला हंगामा हो गया. बताइये, भला ऐसा भी कहीं होता है क्या. न तो वो पहले किसी खिलाड़ी के नाम पे था, न अब है. अब वाले तो मैदान के खिलाड़ी हों या न हों, लेकिन खिलाड़ी तो हैं. जानकार बताते हैं कि बहुत लम्बी-लम्बी फेंकते हैं. बाउंसर में तो ऐसी महारत हासिल है कि खुद मैल्कम मार्शल शरमा जाएँ. विपक्ष आजतक इनका तोड़ नहीं ढूंढ पाया.
हमारे देश का सौभाग्य है कि यहां के स्टेडियम खिलाड़ियों से ज्यादा नेताओं के नाम पे है. सही भी है. आखिर देश के हर नागरिक की तरह खिलाड़ियों का नेतृत्व भी तो हमारे राजनेता ही करते हैं. विपक्षियों को न जाने क्यों मिर्ची लग रही है. इनके खुद के परिवार के नाम अनगिनत रजिस्ट्री हैं. जिस तरह से दीदी जी कह रही हैं कि खांग्रेस की सरकार आई, तो तीनों काले कानून रद्द कर दिए जाएंगे. ठीक उसी तरह स्टेडियम का नाम भी बदल दीजियेगा. बड़ा आसान है.
लेकिन मानना पड़ेगा. भैया दाद देनी पड़ेगी. क्या बनाया है??? आँखें चुँधिया जाती हैं. आलीशान, भव्य से भी भव्य, अद्भुत, सपनों से भी सुंदर. मीडिया की खबरें, तस्वीरें तो यही बता रही हैं. लगता ही नहीं कि कोई स्टेडियम है. सेवन स्टार होटल लगता है एकदम. सही है. खिलाडियों के लिए अलग से होटल का इंतजाम करने का भी झंझट नहीं. मीडिया ने बाकायदा इसके कोने-कोने को कवर किया. सब कुछ बता दिखा दिया, सिवाय इनकी पिच के.
यहाँ की पिच की शानोशौकत के आगे बाकी सब बेमानी है. ऐसी पिचें तो कहीं नसीब से बना करती हैं. जैसे हमारे मोई जी के सामने बड़े से बड़ा धुरंधर नहीं टिकता, उसी तरह यहाँ घूमती गेंदों के आगे अंग्रेज घुटने पर आ गए. एकदम गर्दा उड़ा के रख दी अंग्रेजों की, इस पिच ने. खुद तो जो गर्दा उड़ाई सो उड़ाई. बमुश्किल तो खड़े हो पा रहे थे. जिसने भी दहाई पार किया है, जरूर उसने पिछले जनम में कोई पुण्य कर्म किये होंगे. लेकिन एक बात नहीं समझ में आयी. भारत ने पांच गेंदबाज क्यों खिलाये. विराट की रणनीति अक्सर ही समझ में नहीं आती. जब आश्विन और अक्षर थे, तो बाकी तीन की जरूरत क्या थी. ये तो कहिये कि सुंदर को चार गेंदे फेंकने का महासौभाग्य प्राप्त हो गया, वरना दर्शक तो सोच रहे थे कि हम चार गेंदबाजों के साथ ही खेल रहे हैं.
इधर माँग उठने लगी है कि टेस्ट मैच में कम से कम तीन-तीन पारियां होनी चाहिए. मात्र दो पारी होने के चलते मैच भी दो ही दिनों में खत्म हुए जा रहे हैं. अब सोचिये, उनके दिलों पे क्या बीत रही होगी जो तीसरे, चौथे या पांचवे दिन का टिकट खरीदे होंगे. यह सरासर दर्शकों का अपमान है. उनसे धोखा है. कोरोना के चलते हमारी अर्थव्यवस्था पहले से ही घोर संकट में फंसी पड़ी है. लोगों की जेब भी हल्की है. ऊपर से ये.
कुछ लोग मैच दो दिन में ही खत्म होने का कारण, स्टेडियम का नाम बता रहे हैं. कुछ कह रहे हैं कि अन्य सुविधाओं पर इतना ज्यादा ध्यान दे दिया कि पिच बनवाना ही भूल गए. वैसे भी पिच विच जैसा कुछ होता नहीं है. सब मोह माया है. मन का भ्रम है. जब हमारे यहां छतों में, बरामदों में, गलियों में, सड़कों में खेल सकते हैं, तो वहाँ तो दुनिया का सबसे बड़ा मैदान था. ससुरे अंग्रेज फिरकी खेल ही नहीं पाये. दोष पिच को देते हैं. जितने रन हमारे इशांत अकेले बना गये, उतने तो उनके धुरंधर भी न बना पाए. छक्का मारा सो अलग.
अब जो भी है हकीकत यही है कि नाम बदल चुका है, मैच खत्म हो चुका है, दर्शकों को ठगा जा चुका है. जो हो चुका है, उसे बदला नहीं जा सकता. इसलिए विपक्षी पार्टी, विपक्षी टीम और ठगे गये दर्शकों के साथ ही इस मैदान को भी इंतजार करना होगा अपनी अगली बारी का. बाकी नाम बड़ा होगा, तो काम तो बड़े होंगे ही.
*यह लेख एक व्यंग्य मात्र है. इसका उद्देश्य किसी व्यक्ति, वस्तु, संस्था या स्थान की छवि खराब करना नहीं है. न ही इसका कोई राजनीतिक मन्तव्य है.
