सैमुअल पेटी की हत्या से कितना सीखा फ्रांस

सैमुअल पेटी की हत्या से कितना सीखा फ्रांस

विश्व में जब भी कहीं कट्टरता की बात आती है, चाहे वह आदमी की हो या फिर किसी मज़हब या धर्म की तो सबसे पहले लोगों के ज़ेहन में जो ख्याल आता है. वह इस्लाम को लेकर आता है, और सच भी है. देखा जाए तो जितना एक मुसलमान अपने धर्म को लेकर कट्टर होता है, अन्य धर्म में इतनी कट्टरता देखने को नहीं मिलती है. संपूर्ण विश्व के इतिहास को खंगालोगे तो देखोगे कि सबसे पहले अगर पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत को जिस लोकतांत्रिक देश ने स्वीकार किया था, वह देश था फ्रांस, लेकिन बीते कुछ महीनों से फ्रांस की स्थिति बिल्कुल बदल-सी गयी है. पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत को लेकर चलने वाला फ्रांस आज कहीं न कहीं 1905 में बने इस सिद्धांत को लेकर अफसोस जता रहा होगा. अक्टूबर माह की बात है, फ्रांस में एक अध्यापक सैमुअल पेटी की हत्या कर दी गई थी. हत्या अब्दुल्ला अजारोव ने की थी. शायद इस हत्या की वजह से आप कट्टरता को समझ पायेंगे. सैमुअल पेटी ने कक्षा में पैगंबर मोहम्मद के कार्टून दिखाए थे. वह छात्रों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पाठ पढ़ा रहे था, इसके बाद मोहम्मद का कार्टून सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों के बीच गया, जिसके बाद फ्रांस में जमकर उपद्रव मचाया गया सेमुअल पेटी की हत्या कर दी गई, जिसके तत्काल बाद फ्रांसीसी पुलिस ने भी सेमुअल पेटी के हत्यारे अब्दुल्ला की हत्या कर दी. घटनाक्रम बस इतना ही था, लेकिन इस घटना ने कहीं ना कहीं फ्रांस की संसद को सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि जिस पल को लेकर हम 115 सालों से आगे बढ़ रहे थे आज उसी की वजह से हमारे देश के नागरिक सुरक्षित नहीं है. वहां की संसद ने एक सख्त कानून बनाया, फ्रांस के राष्ट्रपति मैनुअल मेट्रो के गृहमंत्री ने कहा की हमारे देश के दुश्मनों को हम 1 मिनट भी चैन से जीने नहीं देंगे. फ्रांसीसी नेताओं के सख्त बयानों पर प्रतिक्रिया देते हुए तुर्की के राष्ट्रपति तैयब एर्दोगान ने कहा था कि फ्रांस के राष्ट्रपति को अपने दिमाग की जांच करानी चाहिए, राष्ट्रपति मेट्रो ने निजी क्रोध को कानूनी रूप दे दिया है और शांति से संसद के सदन ने पिछले सप्ताह स्पष्ट बहुमत से उस पर मोहर भी लगा दी.

बात कानून की करे तो इस कानून में कहीं भी इस्लाम शब्द का प्रयोग नहीं किया गया इसे अलगाववाद विरोधी कानून का नाम दिया गया है. इस कानून में सिर्फ धार्मिक मज़हबी कट्टरता को ख़त्म करने पर जोर दिया गया है. ध्यान देने वाली बात यह है कि यह सिद्धांत 1905 में ही कानून के रूप में स्वीकार किया गया था वजह थी, सरकार चर्च से ईसाई कट्टरता वाद और दादा गिरी को खत्म करना चाहतीं थी. इसी कानून के चलते सरकारी स्कूलों में किसी छात्र-छात्रा और अध्यापकों को ईसाईयों का क्रॉस, यहूदियों का यामुका यानी टोपी, और इस्लामी हिजाब पहनने की पूर्ण रूप से पाबंदी थी. मज़हबी छुट्टियाँ ईद और योम किप्पूर भी रद्द कर दी गई थी. वर्तमान कानून संशोधन के बाद पारित हुआ है. यह कानून नए फ्रांसीसी इस्लाम को स्थापित कर रहा है. इसका मुख्य उद्देश्य फ्रांस के मुसलमानों को यह समझना है कि तुम सबसे पहले फ्रांस के नागरिक हो, अफ्रीकी, अरब, तुर्क, ईरानी बाद में हो.

सवाल यह खड़ा होता है कि जब पहले से ही फ्रांस में कट्टरतावाद और चरमपंथियों के लिए ऐसा कानून था तो फिर इस कानून में ऐसा क्या है, जो पुराने कानून से नया है? तमाम विशेषज्ञ इस उधेड़बुन को सुलझाने में लगे हैं. वहीं सरकार की बात करें तो सरकार इस बिल के कानून बनने के बाद फ्रांस में चरमपंथ से लड़ने की जो रणनीति है, उसमे मजबूती मिलेगी. नये कानून का विरोध करने वाले यह कह रहे हैं कि सरकार की यह एक राजनीतिक मंशा है. अगले साल फ्रांस में राष्ट्रपति चुनाव होने हैं जिसके मद्देनज़र सरकार मौजूदा कानून में संशोधन करके जनता को यह दिखाना चाहती है कि हम पूर्ण रूप से फ्रांस के जो कानून है, (सांस्कृतिक/धार्मिक कानून) हम उसके रक्षक हैं और देश की पंथनिरपेक्षता की नीव के साथ कोई मज़हब खिलवाड़ करने की कोशिश करेगा, तो उसके लिये कड़े नियम और कानून बनाने के लिये सरकार पूरी तरह प्रतिबद्ध है.

Akhilesh Namdeo