सियासत की बादशाहत बदलती रहती है

सियासत की बादशाहत बदलती रहती है

वक्त बदलता बादशाहत धाराशाई होती, और नाम के ऊपर लगने लगते उसके अतीत के धब्बे। हां, राजनीति की किताबों में इसका सिद्धांत ऐसा ही है. मैं ऐसा क्यों कह रहा उसकी वजह और पुख्ता सबूत साथ है. अभी हाल ही में अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव संपन्न हुआ, ताज बाइडेन के मत्थे गया. इतना तक तो ठीक है. लेकिन ट्रम्प जो कुछ माह पहले तक विश्वशक्ति कहे जाते थे, आज उनकी स्थति, उनका हाल, शान, शोहरत , रुतबा सब मिट्टी में मिलकर ख़ाक हो गया. जो उनके अंध भक्त थे,आज उनको डरपोक और कायर कह के उनको गालियां दे रहे हैं. हकीकत में राजनीतिक पटल पर सियासत चेहरा नहीं, बल्कि वक्त करता है, विश्व के तमाम लोकतांत्रिक देशों के मुखिया को ट्रम्प के मौजूदा हाल से सबक लेने की जरूरत है.

अमेरिका की बदलती राजनीति में पोएट्री और पोएटिक जस्टिस दिख रहा है? हो सकता है जोसफ बाइडेन और कमला हैरिस को पदभार ग्रहण करते देखकर एक काव्यात्मकता का अनुभव जरूर हुआ है। इस कार्यक्रम से ठीक पहले जब राष्ट्रपति ट्रंप आखिरी बार वाइट हाउस से बाहर निकले तो उन्होंने मेलानिया ट्रंप का हाथ अपने हाथ में लेने की कोशिश की और अटपटे ढंग से मेलानिया का हाथ उनके हाथ में बना रहा। इन दोनों पर लगातार नजर रखने वाले कैमरे बता सकते हैं कि पहले कई बार मेलानिया ट्रंप का हाथ झटक चुकी हैं. उस दिन भी जिस तरह से मेलानिया की हथेली ट्रंप के हाथों में थी, उसमें एक अनचाहापन था. मानो मेलानिया लोकतंत्र हों और ट्रंप के साथ जाना नहीं चाहती हों.

हो सकता है, मैं मेटाफर में कुछ ज्यादा ही सोच रहा हूं. ऐसा संभव है, क्योंकि पिछले चार सालों में, खासकर पिछले छह महीने में अमेरिकी राजनीति को देखते और झेलते हुए सब कुछ यथार्थ से परे लगने लगा है. और, जब यथार्थ की जमीन न मिले तो मनुष्य कविता में ही थाह खोजता है. कविता एक उम्मीद जगाती है कि चीजें बदलेंगी, सत्ता बदलेगी, दुनिया बेहतर होगी.  किसने सोचा होगा कि दुनिया के एक पुराने लोकतंत्र का प्रमुख चार साल में तीस हजार झूठ बोलेगा. झूठ की बुनियाद पर वह एक ऐसी इमारत बनाएगा जिसमें दिन-रात रहने वाले लोग एक दिन अमेरिकी लोकतंत्र के प्रतीक कैपिटल हिल पर हमला कर देंगे.

यह अकल्पनीय था. अमेरिका में चार साल के वैमनस्य से भरे बयानों, अशिष्ट भाषा, आक्रामक तेवर और दुनिया के कुछ देशों के प्रति घृणा से भरे रवैये के जवाब में संयमित व्यवहार वाले एक ऐसे बुजुर्ग नेता की जीत हुई है, जिनका कहना है कि वह घाव भरने के लिए आए हैं. मन के जख्मों को भरने का काम कविताएं करती हैं, लेकिन यह वादा अगर जो बाइडेन ने किया है, तो हमें जानना होगा कि उनकी पत्नी प्रोफेसर हैं. पिछले कई सालों से क्रिएटिव राइटिंग पढ़ा रही हैं. वह कविता और शब्दों के महत्व को किसी राष्ट्र के परिप्रेक्ष्य में समझती होंगी. जख्मों पर मरहम लगाने का अर्थ भी वह जानती होंगी. तभी बाइडेन के अभियान का मुख्य स्वर था– हीलिंग अमेरिका.

किसी ने सोचा नहीं था कि बाइडेन की जीत होगी. लेकिन कविता तो तभी मुखर होती है जब कोई संकट हो. मार्च से पहले तक अमेरिकी इकॉनमी उफान पर थी. बेरोजगारी की दर पचास साल में सबसे कम थी और ट्रंप का उन्माद चरम पर था. वह खुद को अजेय मान रहे थे. और पूरा अमेरिका अगले चार सालों तक परेशान होने के लिए तैयार था. लेकिन एक बड़े संकट ने यह सब कुछ बदल दिया.

इस भीषण महामारी में एक सरकारी अमले का एक काले आदमी की गर्दन पर चढ़ कर उसे मार डालना भी दुनिया के इस सबसे पुराने जनतंत्र और सबसे नए समाज में अकल्पनीय ही था. उन आठ मिनटों ने अमेरिका की आत्मा को झकझोर कर रख दिया। लोग काले-गोरे के भेद से ऊपर उठे और मानवता पर बात होने लगी. यह कविता की भाषा थी. यह भाषा थी एक नए अमेरिका की जो ट्रंप की आग से सहमा हुआ था, जो नहीं चाहता था कि किसी काले आदमी को यूं सरेआम गर्दन पर चढ़कर मार दिया जाए. लेकिन जैसा कि होता है, खुद को अजेय मानने वाले लोग अपने सामने खड़ी हकीकत से भी कोई सबक नहीं सीखते. इसलिए जरूरी होता है कि उनके साथ पोएटिक जस्टिस हो. उनकी मूर्खता, उनका पागलपन और उनकी धूर्तता अकेली रह जाए.

ऐसा ही हुआ ट्रंप के साथ जब उन्होंने अपने सनकपन में उन्मादी भीड़ को कैपिटल हिल पर धावा बोलने के लिए उकसाया. यह पोएटिक जस्टिस नहीं तो और क्या है कि कि ट्रंप को आंख मूंदकर समर्थन देने वाले गोरे नस्लभेदी संगठन भी आज उनको डरपोक और कायर कह रहे हैं.दूसरी तरफ अमेरिका आगे बढ़ चुका है. शांति से चहलकदमी करता हुआ, बाइस साल की कवयित्री अमेंडा गोरमन की कविता के साथ जिसका शीर्षक ही था, ‘वह पहाड़ी जिस पर हमें चढ़ना है’.जो बाइडेन के शपथ लेने से पहले पढ़ी गई इस कविता ने अमेरिका की स्थिति को साफ कर दिया. यह कहते हुए कि- ‘ऐसा इसलिए है क्योंकि अमेरिकी होना विरासत में मिले एक गर्व से कहीं अधिक है. यह वह अतीत होता है जिसमें हम प्रवेश करते हैं और जिसे हम दुरुस्त करते हैं. हमने देखा है एक ऐसी ताकत को जो हमारे देश को साझा रखने की बजाय इसे चकनाचूर कर सकती है.

वैसे यह कोई पहली बार नहीं है जब अमेरिकी राष्ट्रपति के पदभार ग्रहण करने के दौरान कविता पाठ हुआ हो, लेकिन यह परंपरा में नहीं रहा है.पहली बार ऐसा हुआ था 1961 में, जब राष्ट्रपति जॉन केनेडी ने शपथ ली थी और कविता पाठ हुआ था रॉबर्ट फ्रास्ट का. कविता थी- ‘द गिफ्ट आउटराइट.इसके बाद कई सालों तक किसी और राष्ट्रपति को यह ख्याल नहीं आया कि किसी कवि को कविता पाठ के लिए बुलाया जाए। आखिरकार 1993 में बिल क्लिंटन राष्ट्रपति बने तो उन्होंने माया एंग्लू को कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया.वह कविता थी- ‘ऑन द पल्स ऑफ मॉर्निंग. बिल क्लिंटन के दूसरे कार्यकाल में कविता पाठ करने आईं मिलर विलियम्स, जिनकी कविता थी ‘ऑफ हिस्ट्री एंड होप.

बराक ओबामा के पहले यानी 2009 वाले शपथ ग्रहण में एलिजाबेथ अलेक्जेंडर ने अपनी कविता ‘प्रेज सॉन्ग फॉर द डे’ का पाठ किया और 2013 में रिचर्ड ब्लैंको ने ‘वन टुडे’ का.ट्रंप के कार्यकाल में कविता को वह जगह नहीं मिलनी थी और नहीं मिली.पर चार साल तक मिले गहरे जख्मों के बाद एक ऐसा नेता आया है जो जख्मों पर मरहम लगाने का वादा करता है, न कि चीजों को बदल देने का. शायद अमेरिका को इस समय सबसे अधिक जरूरत उस मरहम की है जो शब्दों में और खासकर कविता में ही मिल सकता है.

Akhilesh Namdeo