बजट में संरक्षणवाद को बल मिलेगा या फिर होगी सेंधमारी
देश की जनता के आम हितों को सुरक्षा प्रदान करने का काम देश की सरकार करती है. जब देश आजाद हुआ था, देश लगभग पूर्ण रूप से कृषि पर निर्भर था. उपभोग की तमाम वस्तुओं को आयात कराना पड़ता था. देश में धीरे धीरे नये उद्यमी आगे निकल कर सामने आये. देश जो लगभग पूर्ण रूप से वस्तुओं की दिशा में दूसरे देशों पर आश्रित था, वक्त गुजरने के साथ आत्मनिर्भर हो रहा था. उस दौर में दूसरे देशों की कंपनियां यदि भारत में अपनी फ़ैक्टरी लगाना चाहती, तो उनको सरकार से लाइसेंस लेने में अधिक पैसे देने पड़ते थे. भारत में वस्तुओं के व्यापार के लिये सीमा शुल्क भी अधिक था. वजह, भारत में पनपने वाले उद्योगों और उद्यमियों को प्रसार मिल सके. धीरे धीरे समय बदला. 1991 की नई आर्थिक नीति के बाद आर्थिक विकास की रफ्तार में तेजी आई. सबसे खास बात यह थी कि इस रफ्तार के बढ़ने के साथ गरीबी में कमी आई. नये बजट को आये अभी कम ही दिन हुये, बजट बहस का विषय बना हुआ है. आखिर संरक्षणवाद की नीति को बल मिलेगा या फिर उसपर सेंधमारी होगी.
कुछ वर्ष पहले शुरू हुए संरक्षणवाद को एक अन्य केंद्रीय बजट ने मजबूती दी है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट भाषण में कहा कि सीमा शुल्क नीति में ‘घरेलू विनिर्माण को प्रोत्साहन एवं वैश्विक मूल्य श्रृंखला में भारत को जगह दिलाने में मदद का जुड़वां उद्देश्य होना चाहिए.’ लेकिन ये जुड़वां उद्देश्य परस्पर एक-दूसरे की विपरीत दिशा में हैं. व्यापार नीति के जरिये घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देना अपरिहार्य रूप से आखिरी पलों में विनिर्माण की आधुनिक व्यवस्था से दूर ले जाता है, जिसके लिए लचीलेपन एवं पहुंच की दरकार है. इन दोनों उद्देश्यों को एक साथ हासिल नहीं कर पाने से संबंधित सबूत होने के बावजूद वित्त मंत्रालय सीमा शुल्क में इस तरह छेड़छाड़ की कोशिश कर रहा है, जो घरेलू उत्पादकता को हतोत्साहित करता है. इससे हित समूहों की गिरोहबंदी बढ़ जाती है, उपभोक्ताओं को नुकसान होता है और निवेश के लिए समग्र अनिश्चितता पैदा होती है.
सरकार के बचाव में दलीलें रखने वाले अफसरों समेत कुछ लोगों का कहना है कि कुछ उत्पादों पर सीमा शुल्क कम कर दिए गए हैं, जबकि कुछ पर शुल्क बढ़ाया गया है. लेकिन करीबी नज़र से यह ज्ञात होता है कि उनकी दलीलें अधिक प्रभावी नहीं है. मसलन, कुछ स्टील उत्पादों पर सीमा शुल्क घटा दिया गया है. वित्त मंत्री ने भाषण में कहा है कि एमएसएमई एवं दूसरे उपयोगकर्ता उद्योगों से आई मांग को देखते हुए यह कदम उठाया गया है। लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कुछ समय पहले ही घरेलू लौह एवं इस्पात निर्माताओं की मांगों के अनुरूप स्टील पर शुल्क बढ़ाए भी गए थे. गिरोहबंदी करने एवं नीति समायोजन का सिलसिला शुल्क बाधाओं के जरिये विनिर्माण को प्रोत्साहन देने वाली नीति का ही अपरिहार्य परिणाम है. जब आयात की कीमतें बढ़ जाती हैं तो कुछ समूहों को फायदा होता है, जबकि कुछ को नुकसान होता है. आखिर में फतह उसी को मिलती है, जो सबसे प्रभाव युक्त ढंग से और अंत के समय में लॉबी करेगा. निस्संदेह शुल्क में कटौती से लाभान्वित होने वाले एमएसएमई एवं कलपुर्जा उद्योगों को भविष्य में आगे चलकर उन उपभोक्ताओं से ही आयातित स्टील से बने उत्पादों पर शुल्क में कटौती के लिए लॉबी का सामना करना पड़ेगा.
भारत क्षेत्रीय समग्र आर्थिक भागीदारी (आर-सेप) समझौते का हिस्सा बनने से पहले ही मना कर चुका है. इसने यूरोपीय संघ के साथ ही अन्य दूसरे संभावित कारोबारी साझेदारों के साथ वार्ताओं पर भी रोक लगा दी है. अमेरिका ने अपने बाजार तक वरीय पहुंच वाले देशों की सूची से भारत को बाहर किया, तो वह किनारे खड़ा रहा. लिहाजा यह यकीन कर पाना मुश्किल है कि भारतीय अधिकारी वास्तव में वैश्विक मूल्य श्रृंखला का हिस्सा बनना चाहते हैं. इसके बजाय यही लगता है कि वे घरेलू हित समूहों की गुहारों के आगे झुक गए हैं और यह तय कर लिया है कि केवल सीमा शुल्क बाधाओं के जरिये घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देकर आउटपुट वृद्धि हो सकती है. गत पांच दशकों का भारत का इतिहास यह दर्शाता है कि वास्तविकता में ऐसे कदमों के प्रभाव से उत्पादकता ठहर जाती है साथ ही उपभोक्ताओं के कल्याण में भी तेजी के साथ गिरावट आ जाती है. इसके अतिरिक्त, वित्त मंत्री ने विभिन्न प्रकार के शुल्कों की दर में भी छूट देने हेतु विमर्श शुरू करने की भी घोषणा की है. नीतिगत अनिश्चितता के लिए यह सिर्फ एक बड़ा संकेत ही नहीं है बल्कि इसने सरकार की लॉबीइंग करने से जुड़े दावों को भी ऊंचा कर दिया है. हालांकि इस सरकार ने बजट में किसी भी तरह की घरेलू लॉबी के आगे झुकने के संकेत नहीं दिए हैं लेकिन रियायतों की व्यापक समीक्षा से उलटी छवि ही बनेगी, लिहाजा इसे चुपचाप तिलांजलि दे देनी चाहिए. महामारी के बाद की वैश्विक मूल्य श्रृंखला में शामिल होने के लिए भारत को सीमा शुल्क में छेड़छाड़ रोक देनी चाहिए और सबके लिए एक टिकाऊ एवं निम्न शुल्क वाली व्यवस्था लागू करने का वादा करना चाहिए. इससे नीतिगत निश्चितता आएगी जो आने वाले वर्षों में लाभांश देगी.

